Monday 30 April 2018

बच्चों की शिक्षा के लिए शुभ मुहुर्त

          
हर माता पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा खूब पढ़े लिखे और बड़ा आदमी बने। अपने इस सपने को साकार करने के लिए माता पिता पूरी पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन कई बार माता पिता को निराशा हाथ लगती है क्योंकि उनका बच्चा पढ़ने में मन नहीं लगाता है अथवा बच्चे विषयों को सही प्रकार से समझ नहीं पाते। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर मुहुर्त का विचार करके शिक्षा प्रारम्भ की जाए तो इस तरह की समस्या से काफी हद तक राहत मिल सकती है।
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हमारे ऋषि मुनियों ने गहन अध्ययन और शोधों से इस विषय का ज्ञान प्राप्त किया कि समय विशेष में यानी किसी विशेष मुहुर्त में जब कोई कार्य किया जाता है तब उसकी सफलता की संभावना बढ़ जाती है, अगर मुहुर्त सम्बन्धित विषय के प्रतिकूल हो तो परिणाम भी प्रतिकूल होता है। हम बात करें बच्चों की शिक्षा को लेकर तो शिक्षा के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय कई विषयों का अध्ययन किया जाना चाहिए और इससे प्राप्त शुभ मुहुर्त में शिक्षा का प्रारम्भ करना चाहिए।
आप बच्चों की पढ़ाई के लिए जब मुहुर्त का विचार करें उस समय किन किन विषयों का आपको ध्यान रखना चाहिए आइये इसे समझें।

1.समय/काल:
बच्चों की शिक्षा प्रारम्भ करने के लिए सूर्य का उत्तरायण में होना शुभ माना गया है। कुछ ज्योतिषशास्त्रियों का मानना है कि आषाढ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक को छोड़कर बच्चों की शिक्षा शुरू करने के लिए पूरा वर्ष ही उत्तम होता है। समय और काल का आंकलन करते समय इस बात का ध्यान रखें कि बृहस्पति एवं शुक्र अस्त नहीं हों।

2.तिथि:
द्वितीया/तृतीय/पंचमी/षष्टी/दसमी/एकादशी और द्वादशी तिथि शिक्षा प्रारम्भ करने के लिए शुभ मानी जाती है।

3.वार:
बुधवार, बृहस्पतिवार एवं शुक्रवार को शिक्षा प्रारम्भ करने के लिए अति उत्तम दिन माना गया है। रविवार एवं सोमवार को मध्यम दिन कहा गया है और मंगलवार एवं शनिवार को इस कार्य के लिए अच्छा नहीं माना गया है अत: इन दोनों दिनों में बच्चों की शिक्षा शुरू नहीं करें।

4.लग्न:
मुहुर्त के लग्न में चर राशि यानी मेष, कर्क, तुला या मकर हो जिनके केन्द्र या त्रिकोण में प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम भाव में शुभ ग्रह हों तथा तृतीय, षष्टम, दशम और एकादश भाव में पाप ग्रह हों और अष्टम व द्वादश भाव खाली हों तो उत्तम स्थिति होती है।

5.चन्द्र/तारा:
जिस दिन गोचरवश चन्द्रमा जन्म के समय जिस राशि में था उस राशि से चतुर्थ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में उपस्थित हो तथा तृतीय भाव, पंचम भाव एवं सप्तम भाव में तारा नहीं हो उस दिन आप बच्चों की पढ़ाई शुरू कर सकते हैं।

6.नक्षत्र:
जिस दिन चर नक्षत्र यानी स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा हो। लघु नक्षत्र यानी हस्त, अश्विनी, पुष्य मूल, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, मृगशिरा, चित्रा, आर्द्रा या आश्लेषा हो वह दिन शिक्षा शुरू करने के लिए अत्यंत शुभ माना गया है, इस दिन बच्चों की शिक्षा शुरू करना शुभफलदायी होता है।

7.आयु:
बच्चों की शिक्षा शुरू करने के लिए उम्र का विचार भी आवश्यक है आप जब अपने बच्चे का स्कूल में नामांकण करायें अथवा उनकी पढ़ाई शुरू करें तो यह ध्यान रखें कि आपका बच्चा जन्म से विषम वर्षों में हो यानी 3, 5,7  साल का हो। अगर सम वर्षों में आप बच्चे की शिक्षा प्रारम्भ कर रहे हैं तो ध्यान रखें कि चतुर्थ वर्ष के एवं छठे वर्ष के प्रथम महीने व अन्तिम 3 महीने में आप बच्चे की पढ़ाई शुरू कर सकते हैं।

8.निषेध:   
भद्रा और अशुभ योगों में अपने बच्चे की पढ़ाई शुरू न करें. इन आठ तथ्यों का विचार करके अगर आप बच्चे की पढ़ाई शुरू करते हैं तो आपका बच्चा पढ़ने लिखने में होशियार हो सकता है।

मूक प्रश्न विचार

               

मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु प्राणी है,द्र्श्य एवं अद्र्श्य गतिविधियों को जानने के लिये मानव मस्तिष्क मे सदैव उत्सुकता रहती है,क्यों कैसे और क्या हो रहा है और क्या होगा आदि,उसकी यह जिज्ञासा प्रवृत्ति उसके सामने अनेक प्रश्नों को उत्पन्न करती है,जिस बात को जानने की उसकी प्रबल इच्छा रहई है,उसके बारे में पूरी जानकारी हो जाने पर उसे असीम आनन्द मिलता है। यद्यपि मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली इच्छा आकांक्षा उत्सुकता शंका या चिन्ता का ज्ञान और समाधान करना दु:साध्य है तथापि हमारे पूर्वजों महाऋषिओं और आचार्यों ने मानव की इस स्वाभाविक जिज्ञासा की पूर्ति के लिये प्रश्न-शास्त्र की रचना की। ईशा की पांचवीं शताब्दी से लेकर आजतकिस विषय में सकडों मौलिक ग्रंथों की रचना हुयी,भाषा एवं अपनी शास्त्रीय जटिलता के कारण यद्यपि ये ग्रन्थ आज जनसाधारण के लिये रहस्य बने हुये है,तथापि इनमे मनुष्य की जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिये पर्याप्त सामग्री विद्यमान है।
प्रश्न शास्त्र -
प्रश्न शास्त्र ज्योतिष विद्या का एक महत्वपूर्ण अंग है,यह तत्काल फ़ल बतलाने वाला शास्त्र है,इसमे हम तत्कालिक लग्न एवं ग्रह स्थिति के आधार पर व्यक्ति के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले प्रश्न और उनके शुभाशुभ फ़ल का विचार करते है। केरल रमल और स्वरशास्त्र इसके अंग है,इन शाखाओं में प्रश्नाक्षर अंक एवं स्वर के आधार पर प्रश्न के शुभ या अशुभ फ़ल का निश्चय किया जाता है। इस शास्त्र में मुख्यत: तीन सिद्धान्तों का प्रचलन है:-
१.प्रश्न लगन सिद्धान्त
२.प्रश्नाक्षर सिद्धान्त
३.स्वर सिद्धान्त
इसके अलावा अंक तथा चर्चा चेष्टा या हाव भाव के द्वारा भी मनोगत भावों का सूक्षम विश्लेषण किया जाता है,उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों के अन्दर लगन सिद्धान्त ग्रह स्थिति का कथन करता है,और ग्रह सिद्धान्त द्र्श्य भी है,उसकी गति भी निश्चित है,इसलिये ही ग्रह सिद्धान्त सबसे लोकप्रिय सिद्धान्त माना जाता है।

प्रश्न विचार -

जिस समय कोई प्रश्न पूंछने आये,उस समय का इष्टकाल बनाकर लगन स्पष्ट भाव स्पष्ट और नवमांश के आधार पर प्रश्न कुन्डली भावचलित चक्र और नमांश कुन्डली बना लेनी चाहिये,बहुधा देखा गया है कि ज्योतिषी आलस्यवश पंचाग से लगन के आधार पर कुन्डली बनाकर फ़लादेश करने लगते है,किन्तु फ़ल का निश्चय करने की क्रिया में लगन आदि भाव एवं नवमांश भी निर्णायक होते हैं,अत: इनकी उपेक्षा करने से निर्णय एक पक्षीय हो जाता है,और प्रश्न का फ़ल या परिणाम यथार्थ रूप से प्रकट नही घटता अस्तु।
द्वादश भाव -
प्रश्न कुन्डली में लगन से प्रारम्भ करके १२ भावों की गणना की जाती है,यह १२ भाव इस प्रकार है:-

१.तनु या प्रथम भाव
इस भाव से शरीर शरीर का रूप शरीर में चिन्ह शरीर के सुख दुख शरीर का स्वभाव शरीर के अन्दर विवेक शरीर में मस्तिष्क की क्रियाशीलता आदि का विचार किया जाता है,इस भाव में मिथुन कन्या तुला और कुम्भ राशियां बलवान होती है,और इस भाव का परिणाम बताने वाला सूर्य ही कारक होता है।

२. धन या द्वितीय भाव
इस भाव से जो शक्ति शरीर के अन्दर होती है,या शरीर को बाहर की दुनिया से मिलती है,और जिस शक्ति से शरीर को इस संसार में निर्वाह करने की क्षमता मिलती है उसका भाव मिलता है,परिवार की शक्ति,आंखों की शक्ति नाक की शक्ति वाणी की शक्ति वाणी में आवाज की शक्ति शरीर में रूप की शक्ति गाने की शक्ति हावभाव प्रकट करने की शक्ति प्रेम करने की शक्ति संसार द्वारा प्रदान किये गये भोगों की शक्ति,चल सम्पत्ति की शक्ति जिसके अन्दर सोना चांदी रुपया हीरे जवाहारात खरीदने और बेचने की कला आदि की शक्ति को जानने के कारक मिलते है,इस भाव का मालिक गुरु होता है,और गुरु जो इन सबके बारे में ज्ञान देने का कारक है,को देखकर इस भाव की शक्तियों का महत्व जाना जाता है।

३.सहज या तीसरा भाव
शरीर को इस संसार में प्रकट करने के लिये और संसार में अपना पराक्रम प्रकट करने का प्रभाव इस भाव से देखा जाता है,भाई बहिनों का साथ,जो छोटे है और और शरीर की आज्ञानुसार काम करते है,शरीर की ताकत का प्रभाव जिसके द्वारा संसार के सामने समस्याओं से लडने की ताकत होती है,आभूषणों का पहिनना और अपने बारे में शरीर के द्वारा अपनी सभ्यता कला और संस्कृति को प्रकट करना,सेवा कार्य करने की हिम्मत शरीर में होना,हिम्मत और धैर्य की मात्रा का होना,किसी भी प्रकार की आय को प्राप्त करने की शिक्षा का होना,पढाई के द्वारा ली जाने वाली डिग्री डिप्लोमा,कार्य और पराक्रम को प्रकट करने के लिये कम दूरी की यात्रायें करना,शरीर के अन्दर बल नही होने से और दिमाग में साधनों को प्राप्त करने की चालाकी और छल का होना,अपने द्वारा साहस को दिखाना,मीडिया और लेखन द्वारा अपनी योग्यता को प्रकट करना,तरह तरह से शरीर को बनाकर उसके द्वारा लोगों का मनोरंजन करना,शरीर के अवयवों का कमाल दिखाना,आदि इसी भाव के अन्दर आजाते है।

४.सुह्रद या चौथा भाव
इस शरीर के प्रकट करने का स्थान चौथा भाव कहलाता है,पिता की वीर्य और माता की कोख,जिसके द्वारा इस शरीर की प्राप्ति सम्भव हुयी,पैदा होने के बाद इस शरीर को धारण करने का स्थान यानी माता की गोद,और पालने वाली माता या दाई की गोद,शरीर के बडा होने के बाद शरीर की गर्मी,सर्दी और बरसात से रक्षा करने का स्थान यानी रहने वाला मकान,मकान को धारण करने वाला गांव और गांव को धारण करने वाला शहर और शहर को धारण करने वाला प्रांत और प्रांत को धारण करने वाला देश,उस देश की सीमा,विस्तार,और देश की राजनीतिक हालत,शरीर को पालने के लिये प्रयोग किये जाने वाले अन्न,और उस अन्न को पैदा करने का स्थान,शरीर की पालना में अन्य प्रयोग होने वाले कारक जैसे फ़ल सब्जियां दूध दही चावल पानी और रस आदि,शरीर में अच्छे पानी की मात्रा होने से शरीर का निरोगी होना और निरोगी होने के बाद मिलने वाले सुख,शरीर में गंदे पानी का होना और शरीर के बीमार रहने के बाद मिलने वाले दुख,शरीर की पानी की मात्रा के अनुसार शरीर के ह्रदय की हालत,सांस के अन्दर जाने वाली नमी की मात्रा,और शरीर से बाहर छोडी जाने वाली सांस के साथ जाने वाली पानी की मात्रा तथा उस सांस को छानकर वापस शरीर के अन्दर जाने वाली हवा की मात्रा,शरीर के अन्दर पानी की साफ़ मात्रा के अनुसार शरीर में मिलने वाली दया,जो अन्य किसी को भी अपने अनुसार सुखी देखने की कल्पना,दूसरों को अपने द्वारा दिये जाने वाली सहायतायें,शरीर मे गंदे पानी के प्रवाह से मस्तिष्क में प्रकत होने वाले छल कपट,दोस्तों और बडे भाई के द्वारा किये जाने वाले कर्जा दुश्मनी और बीमारी के प्रभाव,माता की पहिचान पिता की वैवाहिक स्थिति,छोटे भाई बहिनो का धन, शिक्षा के प्रति किये जाने वाले खर्चे, बीमारियों का लेखा जोखा,जीवन साथी के पिता का हाल,जीवन साथी के द्वारा किये जाने वाले अपने कैरियर के लिये प्रयास,आदि का विचार इस भाव से किया जाता है,इस भाव में कर्क मकर और मीन राशियां बलवान होते है,बुध और चन्द्रमा इस भाव का संदेशा देते है।

५.पुत्र या पंचम भाव
विद्या बुद्धि मंत्र की सिद्धि विनय नीति व्यवस्था प्रशासन देव भक्ति अचानक धन लाभ गर्भ और गर्भिणी का हाल,सन्तान की संख्या,पेट में अन्न या भोजन को पचाने की शक्ति,स्त्रियों के अन्दर गर्भाशय का विचार इस भाव से किया जाता है,इस भाव का मालिक भी गुरु होता है,और गुरु के अनुसार ही शरीर में इस भाव का ज्ञान मिलता है।

६.रिपु या छठा भाव
विरोध देर होना दुश्मन माया चिन्ता शंका रोग दुर्घटना चोट षडयन्त्र विपत्ति और शारीरिक दुर्बलता का विचार किया जाता है,इस भाव का कारक मंगल और शनि को माना जाता है।
इसी प्रकार से अन्य भावों का विवेचन किया जाता है।…..

Sunday 29 April 2018

अस्त ग्रह

                           

एक अच्छे ज्योतिषि के लिए किसी भी व्यक्ति की जन्म कुंडली का अध्ययन करते समय अस्त ग्रहों का गहन अध्ययन करना अति आवश्यक है। किसी भी कुंडली में पाये जाने वाले अस्त ग्रहों का अपना एक विशेष महत्व होता है तथा इन्हें भली भांति समझ लेना एक अच्छे ज्योतिषि के लिए अति आवश्यक होता है। अस्त ग्रहों का अध्ययन किए बिना कुंडली धारक के विषय में की गईं कई भविष्यवाणियां गलत हो सकती हैं, इसलिए इनकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। आइए देखते हैं कि एक ग्रह को अस्त ग्रह कब कहा जाता है तथा अस्त होने से किसी ग्रह विशेष की कार्यप्रणाली में क्या अंतर आ जाता है। आकाश मंडल में कोई भी ग्रह जब सूर्य से एक निश्चित दूरी के अंदर आ जाता है तो सूर्य के तेज से वह ग्रह अपनी आभा तथा शक्ति खोने लगता है जिसके कारण वह आकाश मंडल में दिखाई देना बंद हो जाता है तथा इस ग्रह को अस्त ग्रह का नाम दिया जाता है। प्रत्येक ग्रह की सूर्य से यह समीपता डिग्रियों में मापी जाती है तथा इस मापदंड के अनुसार प्रत्येक ग्रह सूर्य से निम्नलिखित दूरी के अंदर आने पर अस्त हो जाता है :

चन्द्रमा सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।

गुरू सूर्य के दोनों ओर 11 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।

शुक्र सूर्य के दोनों ओर 10 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि शुक्र अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 8 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।

बुध सूर्य के दोनों ओर 14 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं। किन्तु यदि बुध अपनी सामान्य गति की बनिस्पत वक्र गति से चल रहे हों तो वह सूर्य के दोनों ओर 12 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।

शनि सूर्य के दोनों ओर 15 डिग्री या इससे अधिक समीप आने पर अस्त माने जाते हैं।

Note:-  राहु-केतु छाया ग्रह होने के कारण कभी भी अस्त नहीं होते।

किसी भी ग्रह के अस्त हो जाने की स्थिति में उसके बल में कमी आ जाती है तथा वह किसी कुंडली में सुचारू रुप से कार्य करने में सक्षम नहीं रह जाता। किसी भी अस्त ग्रह की बलहीनता का सही अनुमान लगाने के लिए उस ग्रह का किसी कुंडली में स्थिति के कारण बल, सूर्य का उसी कुंडली विशेष में बल तथा अस्त ग्रह की सूर्य से दूरी देखना आवश्यक होता है। तत्पश्चात ही उस ग्रह की कार्य क्षमता के बारे में सही जानकारी प्राप्त हो सकती है। उदाहरण के लिए किसी कुंडली में  चन्द्रमा सूर्य से 11 डिग्री दूर होने पर भी अस्त कहलाएंगे तथा 1 डिग्री दूर होने पर भी अस्त ही कहलाएंगे, किन्तु पहली स्थिति में कुंडली में चन्द्रमा का बल दूसरी स्थिति के मुकाबले अधिक होगा क्योंकि जितना ही कोई ग्रह सूर्य के पास आ जाता है, उतना ही उसका बल क्षीण होता जाता है। इसलिए अस्त ग्रहों का अध्ययन बहुत ध्यानपूर्वक करना चाहिए जिससे कि उनके किसी कुंडली विशेष में सही बल का पता चल सके।
अस्त ग्रहों को सुचारू रूप से चलने के लिए अतिरिक्त बल की आवश्यकता होती है तथा कुंडली में किसी अस्त ग्रह का स्वभाव देखने के बाद ही यह निर्णय किया जाता है कि उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल कैसे प्रदान किया जा सकता है। यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह  अस्त होने के साथ साथ स्वभाव से शुभ फलदायी है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करने का सबसे आसान तथा प्रभावशाली उपाय है, कुंडली धारक को उस ग्रह विशेष का रत्न धारण करवा देना। रत्न का वज़न अस्त ग्रह की बलहीनता का सही अनुमान लगाने के बाद ही तय किया जाना चाहिए। इस प्रकार उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल मिल जाता है जिससे वह अपना कार्य सुचारू रूप से करने में सक्षम हो जाता है।
किन्तु यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त होने के साथ साथ अशुभ फलदायी है तो ऐसे ग्रह को उसके रत्न के द्वारा अतिरिक्त बल नही दिया जाता क्योंकि किसी ग्रह के अशुभ होने की स्थिति में उसके रत्न का प्रयोग सर्वथा वर्जित है, भले ही वह ग्रह कितना भी बलहीन हो। ऐसी स्थिति में किसी भी अस्त ग्रह को बल देने का सबसे बढ़िया तथा प्रभावशाली उपाय उस ग्रह का मंत्र होता है। ऐसी स्थिति में उस ग्रह के मंत्र का निरंतर जाप करने से या उस ग्रह के मंत्र से पूजा करवाने से ग्रह को अतिरिक्त बल तो मिलता ही है, साथ ही साथ उसका स्वभाव भी अशुभ से शुभ की ओर बदलना शुरू हो जाता है। मेरे विचार से किसी कुंडली में किसी अस्त तथा अशुभ फलदायी ग्रह के लिए सर्वप्रथम उसके बीज मंत्र अथवा वेद मंत्र के 125,000 मंत्रों के जाप से पूजा करवानी चाहिए तथा उसके पश्चात नियमित रूप से उसी मंत्र का जाप करना चाहिए..
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Saturday 28 April 2018

ऊँ और स्वास्तिक का महत्व


स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक मतालम्बी हों या सनातनी हो या जैन मतालम्बी,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है। इन दोनो का प्रयोग करने का तरीका यह जरूरी नही है कि वह पढे लिखे या विद्वान संगति में ही देखने को मिलता हो,यह किसी भी ग्रामीण या शहरी संस्कृति में देखने को मिल जाता है। किसी के घर में मांगलिक कार्य होते है तो दरवाजे पर लिखा जाता है,किसी मंदिर में जाते है तो उसके दरवाजे पर यह लिखा मिलता है,किसी प्रकार की नई लिखा पढी की जाती है तो शुरु में इन दोनो को या एक को ही प्रयोग में लाया जाता है। "ऊँ" के अन्दर तीन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है,"अ उ म" इन तीनो अक्षरों में अ से अज यानी ब्रह्मा जो ब्रह्माण्ड के निर्माता है,सृष्टि का बनाने का काम जिनके पास है,उ से उनन्द यानी विष्णुजी जो ब्रह्माण्ड के पालक है और सृष्टि को पालने का कार्य करते है, म से महेश यानी भगवान शिवजी,जो ब्रह्माण्ड में बदलाव के लिये पुराने को नया बनाने के लिये विघटन का कार्य करते है। वेदों में ऊँ को प्रणव की संज्ञा दी गयी है,जब भी किसी वेद मंत्र का उच्चारण होता है तो ऊँकार से ही शुरु किया जाता है,स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके नही,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है। स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है।
ऊँ परमात्मा वाची कहा गया है,ऊँ को मंगल रूप में जाना गया है,जैन धर्म के अनुसार ऊँ पंच परमेष्ठीवाचक की उपाधि से विभूषित है। णमोकार मंत्र के पहले इसे प्रयोग किया गया है। ऊँ एक बीजाक्षर की भांति है,इसके मात्र उच्चारण करने से ही भक्ति महिमा का निष्पादन हो जाता है। इसका रूप दोनो आंखों के बीच में आंखों को बन्द करने के बाद सुनहले रूप में कल्पित करते रहने से यह सहज योग का रूप सामने लाना शुरु कर देता है,और उन अनुभूतियों की तरफ़ मनुष्य जाना शुरु कर देता है जिन्हे वह कभी सोच भी नही सकता है।
ऊँ कार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिना:।
कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नम:॥

रुद्राक्ष

                               
रुद्राक्ष को भगवान शिव का प्रतिक मानाजाता है. रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के अश्रु से हुइथी इस लिये इसे रुद्राक्ष कह जाता है.
रुद्राक्ष शब्द "रुद्र+अक्ष" - रुद्र = शिव
अक्ष = आशु/अश्रु


रूद्राक्ष : 1 मुखी { https://amzn.to/3fG5rQz }
भगवान : शिव
ग्रह : सूरज
लाभ : विद्वानो के मत से एक मुखी रुद्राक्ष धारण करने से आंतरिक चेतना प्रबुद्ध होती है एवं मानसिक शक्ति क विकास होत है. धारण करता को सभी सांसारिक सुखो कि प्राप्ति होती है.


रूद्राक्ष : 2 मुखी { https://amzn.to/2WRtAeK }
भगवान : अर्धनारीश्वर
ग्रह : चंद्रमा
लाभ : विद्वानो के मत से दो मुखी रुद्राक्ष धारण करने से गुरु-शिष्य, माता-पिता, बच्चे, पति-पत्नी एवं  अन्य रिस्तो के मध्य एकता बनाए रखने सहायक सिद्ध होता है


रूद्राक्ष : 3 मुखी { https://amzn.to/2WZBjHJ }
भगवान : अग्नि
ग्रह : मंगल
लाभ : विद्वानो के मत से तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करने से खरब विचार धारा (कुमति) ओर सर्व प्रकार के भय और पीडा दुर होति है


रूद्राक्ष : 5 मुखी  { https://amzn.to/2yDuhAh }
भगवान : कालाग्नि रुद्र
ग्रह : बृहस्पति
लाभ : विद्वानो के मत से पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करने से स्वास्थ्य लाभ और शांति कि प्राप्ति होती है.


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भगवान : कार्तिकेय
ग्रह : शुक्र
लाभ : विद्वानो के मत से छ मुखी रुद्राक्ष धारण करने से सांसारिक दुखों से रक्षा होति है ज्ञान और बुद्धि कि प्राप्ति होती है. एवं प्यार, संगीत और व्यक्तिगत संबंधों की सराहना करता है.


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भगवान : महालक्ष्मी
ग्रह : शनि
लाभ : विद्वानो के मत से सात मुखी रुद्राक्ष धारण करने से व्यापार ओर आदमी वृद्धि होति है. समस्त प्रकार के भौतिक सुखो कि प्राप्ति होति है


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भगवान : गणेश
ग्रह : राहू
लाभ : विद्वानो के मत से आठ मुखी रुद्राक्ष धारण करने से रिद्धि- सिद्धि कि प्राप्ति होति है ओर समस्त प्रकार के शत्रु पर विजय प्राप्त कर समस्त बाधा दुर होति है


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भगवान : दुर्गा
ग्रह : केतु
लाभ : विद्वानो के मत से नव मुखी रुद्राक्ष धारण करने से उर्जा शक्ति मे इजफा होत है एवं जीवन मे सफलता प्राप्त कर गतिशीलता कि प्राप्ति होति है.


रूद्राक्ष : 10 मुखी { https://amzn.to/3fCHERG }
भगवान : विष्णु
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से दश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से शरीर कि रक्षा होति है


रूद्राक्ष : 11 मुखी { https://amzn.to/3dB7pjv }
भगवान : हनुमान
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से एकादश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से ताकत, वाक शक्ति, साहसी जीवन, उत्तम ज्ञान एवं दुर्घटना में मृत्यु से बचाता है. ध्यान ओर योगाभयास मे सहायक होत है


रूद्राक्ष : 12 मुखी { https://amzn.to/3dB7FPv }
भगवान : सूरज
ग्रह : कोई नहीं
लाभ : विद्वानो के मत से द्वादश मुखी रुद्राक्ष धारण करने से व्यक्ति सूरज के समान तेज ओर गुणवत्ता प्राप्त होति है एवं चिंता, शक और डर को दुर करता है ओर आत्म शक्ति का विकास होता है

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Thursday 26 April 2018

ज्योतिष या भ्रम - 1

                    

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि " ज्योतिष शास्त्र "  को वेदों के नेत्र कहा गया है | जिसके द्वारा हम अपने भाग्य को उन्नत, और अपने जीवन में होने वाली सभी शुभ - अशुभ घटनाओं तथा मुहूर्त इत्यादि के बारे में जान लेते हैं और अशुभ प्रभाव को उपाय द्वारा ठीक कर लेते हैं |
देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी इस शास्त्र के प्रति गहरी आस्था व विश्वास है | किन्तु कुछ ऎसे लोग भी हैं जो इस शास्त्र को मात्र एक भ्रम और पाखंड के रूप में देखते हैं | उनका मानना है कि कर्म ही प्रधान है, व कर्म द्वारा ही सभी कार्य सिद्ध किए जाते हैं | बात तो सही है, लेकिन ऎसे व्यक्ति या जातक को मालूम नहीं होता कि उनकी कुण्डली में ऎसे योग होंगे जिस कारण, उनका विश्वास ज्योतिष में नहीं होगा या होगा भी तो टूट गया होगा | उदाहरण 1 :- यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि केंद्र में (1,4,7,10) स्थित है, तो ऎसे व्यक्ति या जातक को किसी भी प्रकार की पूजा पाठ का फल न के बराबर मिलता है, ऎसा जातक पैदा ही कठोर मेहनत व कर्म करने के लिए होता है, और अपनी मेहनत से ही अपने जीवन को सफल बनाता है | उसे किसी से भी विशेष सहायता प्राप्त नहीं होती |
उदाहरण 2:-  यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में गुरु सप्तम भाव में हो, तो ऎसे व्यक्ति को अपने उतारे हुए कपड़े दान नहीं करने चाहिए, तथा अपने घर में निचले स्थल ( बेसमेंट ) में मंदिर का निर्माण या दीया नहीं जलाना चाहिए, अन्यथा जातक के भाग्य और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |
उदाहरण 3 :-  यदि कुण्डली में सूर्य द्वितीय भाव में स्थित हो, एवं ऎसे जातक यदि नित्य घी का दीपक जलाएं, तो उनका यश, धन और आयु बडने की बजाए घटने लगती है  |
उदाहरण 4 :-  यदि कुण्डली में सूर्य तृतीय भाव में हो तो ऎसे जातक को छोटे भाई का सुख नहीं मिलता, किन्तु गुरु की कृपा से मिल भी जाए तो, ऎसे जातक को सूर्य को जल नहीं चढ़ाना चाहिए, अन्यथा छोटे भाई की आयु घट जाती है और स्वास्थ्य भी खराब रहने लगता है | ऎसी स्थिति में सूर्य को केवल हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहिए |
ऎसे बहुत से उदाहरण हैं, जिसमे जातक अथवा व्यक्ति अपनी ओर से तो अच्छा कार्य अथवा कर्म करता है, लेकिन उसे इसका विपरीत परिणाम भुगतना पड़ता है, और इसी कारण से उसका ज्योतिष से विश्वास उठ जाता है |
ज्योतिष हमें मार्ग प्रशस्त करने में सहायता करता है, कौन से मुहूर्त में हमें क्या शुभ कार्य करना चाहिए, किस कार्य के द्वारा हमें लाभ व हानि होगी, जीवन में किस प्रकार की उन्नति या हानि होगी इत्यादि का प्रारूप व चित्रण हमें पहले ही दिखला देता है |
हमारे कर्म किस प्रकार ग्रहों पर अपना प्रभाव डालते हैं :-
माना किसी जातक की कुंडली में सूर्य उच्च अथवा शुभ अवस्था में है, तो ऎसे जातक को अपने पिता से पूर्ण सुख प्राप्त होगा तथा हर क्षेत्र में मान सम्मान व ख्याति प्राप्त करेगा, ऎसे में यदि जातक अपने पिता के साथ रहे और उनकी सेवा करे, उन्हें खुश रखे तो जातक के मान सम्मान व यश में और भी ज्यादा वृद्धि होगी | लेकिन अगर जातक ने किसी भी प्रकार से अपने पिता को कोई कष्ट, हानि अथवा प्रताड़ित करे तो जातक का सूर्य उच्च अथवा शुभ होने पर भी स्वयं ही नीच हो जाएगा जिसका प्रभाव जातक के पुत्र में पूर्ण रूप से दिखेगा |

ज्योतिष या भ्रम - 2

                  

इस लेख के माध्यम से ज्योतिष क्या है और क्या ज्योतिष नहीं है, इन बातों को उद्धत करना चाहेंगे. आपने अकसर देखा होगा कि समाज में कुछ ठोगी किस्म के ज्योतिषी अपनी चतुराई से किस प्रकार भोले - भाले लोगों को ठगते हैं. जिन बातों का दूर दूर तक भी सम्बन्ध नहीं उन्हें ज्योतिष से जोडकर अपनी दुकान चलाते हैं. आप लोगो को सचेत करने के लिए तथा ज्ञान की दृष्टि से यहाँ पर मैं उन बातो का उदाहरण सहित उल्लेख करना चाहूँगा जिससे कि आप सत्य और मिथ्या में अन्तर कर सकें.

उदाहरण न. 1.
बाजार से गुजरते वक्त कभी-कभी कोइ ज्योतिषी महाशय पिंजरे में बन्द एक तोते के साथ सड्क पर आसन लगाए नजर आ जाते हैं. उनके पास बन्द लिफाफो में कुछ कार्ड रखे होते हैं. अब जैसे ही कोइ व्यक्ति उनके पास प्रश्न पूछने के लिए आता है तो वो ज्योतिषी महाराज पिंजरे का मुंह खोल देते हैं जिससे कि तोता पिंजरे से बाहर आकर उन लिफाफो में से एक कार्ड अलग करके वापस पिंजरे में चला जाता है. अब वह ज्योतिषी उस कार्ड पर लिखे हुए को पढ्ता है तथा प्रश्नकर्ता को बताता है कि उसके भाग्य में ये सब लिखा है. मान लो प्रश्नकर्ता दोबारा से अपना भाग्य जानना चाहे, तो ज्योतिषी फिर से उसी पहले वाली प्रक्रिया को दोहरायेगा. लेकिन इस बार दूसरा कार्ड हाथ में होगा जिसका फलादेश पहले वाले कार्ड से भिन्न होगा. इसी प्रकार जितनी बार प्रश्न किया जायेगा, उतनी ही बार उस व्यक्ति का भाग्य बदल जायेगा. कभी अच्छा भाग्य होगा तो कभी बुरा. ज्योतिष के नाम पर ये ढोगी मनुष्यो की भावनाओ के साथ खिलवाड् करते है. इसका सबसे अधिक बुरा प्रभाव ज्योतिष विद्या पर पड्ता है तथा जिन लोगो का इस विद्या पर विश्वास नहीं है, वो अपने आप को सही सिद्ध करने के लिए ऎसे अवसरो की तलाश में रहते हैं. इस समस्या का सबसे अच्छा निदान यही है कि हम ऎसे ढोगी बाबाओ के पास न जाकर ठगे जाने से बचे.

उदाहरण न. 2.
आप जब भी यात्रा के लिए निकलते हैं तो आपने अकसर रेलवे स्टेशन या बस स्टाप पर वजन मापने वाली मशीन देखी होगी, जिसमें 1 या 2 रुपये का सिक्का डालने पर एक छोटे से कार्ड पर आपका वजन छपे हुए रुप में आ जाता है. कार्ड के दूसरी तरफ प्रायः आपका भविष्यफल छपा होता है. जो कि अमूमन अच्छा ही होता है. लेकिन यदि आप दोबारा अपना वजन तोलते हैं तो अलग तरह का भविष्यफल लिखा हुआ आऎगा अर्थात आप जितनी बार भी वजन तोलेगे उतनी ही बार अलग- अलग भविष्यफल आयेगा. यहाँ पर भी उदाहरण न.1 वाला नियम लागू होता है. यदि आप समय गुजारने के लिए (Time Pass) उस भविष्यफल को पढ्ते हैं तो कोइ बात नही क्योकि उसे संजीदगी से लेना व्यर्थ की कसरत होगी.

उदाहरण न. 3.
मेले या त्यौहार पर आपने किन्ही श्रीमान जी को एक एसी टिमटिमाती हुई मशीन के साथ देखा होगा, जो कम्पयूटर द्वारा आपका भविष्यफल बताती है. अर्थात कानों में ईयर-फोन लगाकर आप अपना भविष्य सुन सकते हैं. वह भविष्यफल कुछ भी हो सकता है, अब आधा घण्टा इधर-उधर घूमकर आप दोबारा से अपना भविष्य सुने, चमत्कारिक रुप से आधे घण्टे में ही आपका समय बदल जायेगा. यहाँ पर भी हम यही कहेंगे कि यह सब मनोरंजन की दृष्टि से तो ठीक है, इसे ज्योतिष मानने की भूल कदापि न करें.

उदाहरण न. 4.
आजकल टैराँट कार्ड (Tarrot Card) बहुत प्रचलन में हैं विशेषकर बडे शहरों में जैसे कि दिल्ली, मुम्बई इत्यादि. ज्यादा पढे-लिखे व समझदार लोग ही इस विद्या का प्रयोग करते हैं. टेरो कार्ड में ताश की तरह पत्ते होते हैं. जब कोई व्यक्ति टेरो एक्सपर्ट के पास अपना भविष्य पूछने जाता है तो टेरो एक्सपर्ट एक कार्ड निकालकर जिज्ञासु के स्वभाव इत्यादि को पढ्ता है, जोकि पुर्ण रुप से मनोविज्ञान होता है. यदि एक ज्योतिषी को मनोविज्ञान की जानकारी है तो ज्ञान की दृष्टि से उसके लिए लाभकारी है तथा मनोविज्ञान ज्योतिष से पहले की अवस्था है. परन्तु मनोविज्ञान को ही हम ज्योतिष नहीं मान सकते. अतः टैरो कार्ड एक जुए की तरह का मनोविज्ञान है, जिसे पढ कर आप प्रसन्न हो सकते हैं.

ज्योतिष के अनुसार अशुभ जन्म समय

       

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रहों स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं

अमावस्या में जन्म:
ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है। अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।


संक्रान्ति में जन्म:
संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है। अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।


भद्रा काल में जन्म:
जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।


कृष्ण चतुर्दशी में जन्म:
पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है। कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशु प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का अभिषेक करना चाहिए साथ ही ब्राह्मण भोजन एवं छाया पात्र दान देना चाहिए।


समान जन्म नक्षत्र:
ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है। इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, ब्राह्मणों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।


सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म:
सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है। सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।


सर्पशीर्ष में जन्म:
अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सार्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सार्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है। जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर रूद्राभिषेक कराना चाहिए और ब्रह्मणों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।
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Tuesday 24 April 2018

माँ दुर्गा के अचुक प्रभावी मंत्र

           
ब्रह्माजी ने मनुष्यों कि रक्षा हेतु मार्कण्डेय पुराण में कुछ परमगोपनीय साधन-कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपायो का उल्लेख किया गया हैं, जिस्से साधारण से साधारण व्यक्ति जिसे माँ दुर्गा पूजा अर्चना के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं होने पर भी विशेष लाभ प्राप्त कर सकते हैं। माँ दुर्गा के इन मंत्रो का जाप प्रति दिन भी कर सकते हैं। पर नवरात्र में जाप करने से शीघ्र प्रभाव देखा गया हैं।

सर्व प्रकार कि बाधा मुक्ति हेतु:

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥

भावार्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें जरा भी संदेह नहीं है। किसी भी प्रकार के संकट या बाधा कि आशंका होने पर इस मंत्र का प्रयोग करें। उक्त मंत्र का श्रद्धा से जाप करने से व्यक्ति सभी प्रकार की बाधा से मुक्त होकर धन-धान्य एवं पुत्र की प्राप्ति होती हैं।

बाधा शान्ति हेतु:

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥

भावार्थ :-सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।

विपत्ति नाश हेतु:

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

भावार्थ :-शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

पाप नाश हेतु:

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

भावार्थ :- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है।

भय नाश हेतु:

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥

भावार्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।

विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति हेतु:

करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः।

भावार्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

कैसे करें मंत्र जाप :-
नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन संकल्प लेकर प्रातःकाल स्नान करके पूर्व या उत्तर दिशा कि और मुख करके दुर्गा कि मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से पूजा करें। शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, स्फटिक, तुलसी या चंदन कि माला से मंत्र का जाप १,५,७,११ माला जाप पूर्ण कर अपने कार्य उद्देश्य कि पूर्ति हेतु मां से प्राथना करें। संपूर्ण नवरात्रि में जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती हैं। उपरोक्त मंत्र के विधि-विधान के अनुसार जाप करने से मां कि कृपा से व्यक्ति को पाप और कष्टों से छुटकारा मिलता हैं और मोक्ष प्राप्ति का मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुगम प्रतित होता हैं।


पति-पत्नी में कलह निवारण हेतु;

यदि परिवारों में सुख सुविधा के समस्त साधान होते हुए भी छोटी-छोटी बातो में पति-पत्नी के बिच मे कलह होता रहता हैं, तो निम्न मंत्र का जाप करने से पति-पत्नी के बिचमें शांति का वातावरण बनेगा

मंत्र -
 धं धिं धुम धुर्जते पत्नी वां वीं बूम वाग्धिश्वरि।
क्रं क्रीं क्रूं कालिका देवी शं षीम शूं में शुभम कुरु॥
यदि पत्नी यह प्रयोग कर रही हैं तो पत्नी की जगह पति शब्द का उच्चारण करे
प्रयोग विधि –
    *  प्रातः स्नान इत्यादी से निवृत्त हो कर के दूर्गा या मां काली देवी के चित्र पर लाल पुष्प भेटा कर  धूप-दीप जला के सिद्ध स्फटिक माला से 21 दिन तक 108 बार जाप करे लाभा प्राप्त होता हैं।
    * शीध्र लाभ प्राप्ति हेतु प्रयोग करने से पूर्व मां के मंदिर में अपनी समर्थता के अनुशार अर्थ या वस्त्र भेट करें।
    * लाभ प्राप्ति के पश्चयात माला को जल प्रवाह कर दें।

सर्व प्रकार के कल्याण हेतु:

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

भावार्थ :- नारायणी! आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। आपको नमस्कार हैं।
व्यक्ति दु:ख, दरिद्रता और भय से परेशान हो चाहकर भी या परीश्रम के उपरांत भी सफलता प्राप्त नहीं होरही हों तो इस मत्र का प्रयोग करें।

सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति हेतु:

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

भावार्थ :-  मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

रक्षा प्राप्ति हेतु:

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

भावार्थ :- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें। देह को सुरक्षित रखने हेतु एवं उसे किसी भी प्रकार कि चोट या हानी या किसी भी प्रकार के अस्त्र-सस्त्र से सुरक्षित रखने हेतु इस मंत्र का श्रद्धा से नियम पूर्वक जाप करें।

विद्या प्राप्ति एवं मातृभाव हेतु:

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा  परोक्तिः॥

भावार्थ :- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो। समस्त प्रकार कि विद्याओं की प्राप्ति हेतु और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये इस मंत्रका पाठ करें।

शक्ति प्राप्ति हेतु:

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

भावार्थ :- तुम सृष्टि, पालन और संहार करने वाली शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु:

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

भावार्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न हो । त्रिलोकनिवासियों की पूजनीय परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।
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नज़र उतारने के लिए उपाय

                      

घर में कोई बार-बार बीमार पड़ जाता है, मन चिड़चिड़ा रहता है, काम में मन नहीं लगता, बनते काम बिगड़ते हैं, बच्चा दूध नहीं पीता है..ऐसे में आमतौर पर यही कहा जाता है कि नजर लग गई है। नजर उतारने के लिए कई तरह के उपाय किए जाते हैं और माना जाता है कि इन्हें करने से बुरी नज़र का प्रभाव खत्म हो जाता है। जानें ऐसे ही कुछ उपायों के बारे में.

1. एक साफ रुमाल पर हनुमानजी के पांव का सिंदूर, दस ग्राम काले तिल, दस ग्राम काले उड़द, एक लोहे की कील, तीन साबुत लाल मिर्च लेकर पोटली बनाएं और नजर लगे व्यक्ति के सिरहाने यह पोटली रख दें। चौबीस घंटे बाद पोटली को बहते हुए जल में बहा दें। ऐसा करने से जल्द ही बुरी नज़र का असर कम खत्म हो जाएगा।

2. यदि बच्चे को नजर लग जाए और वह दूध न पी रहा हो तो एक कटोरी में थोड़ा-सा दूध लेकर उसे सात बार बच्चे के ऊपर से उतार कर काले कुत्ते को पिला दें। नज़र का प्रभाव खत्म हो जाएगा और बच्चा दूध पीने लगेगा।

3. राई के कुछ दाने, नमक की सात डली और सात साबुत लाल सूखी मिर्च (डंठल वाली) बाएं हाथ की मुट्ठी में लें और नजर लगे व्यक्ति को लिटाकर सिर से पांव तक सात बार उतारा करें। फिर इन सबको जलते हुए चूल्हे में झोंक दें। यह टोटका करते समय बोलें नहीं। इसे केवल मंगलवार और रविवार को ही करें।

4. यदि किसी बच्चे को या बड़े इंसान को बुरी नजर लग जाए तो पीड़ित व्यक्ति के ऊपर से (सिर से पैर तक) सात बार नींबू वार कर उसके चार टुकड़े करके किसी सुनसान स्थान या किसी तिराहे पर फेंक दें। नींबू के टुकड़े फेंकने के बाद पीछे न देखें।

5. नज़र उतारने के लिए एक रोटी बनाएं। ध्यान रहे कि रोटी को बस एक तरफ से ही सेकेना है। दूसरी तरफ से इसे कच्ची छोड़ दें। इसके सिके हुए भाग पर तेल या घी लगाकर और उस पर लाल मिर्च और नमक की दो- तीन डली रखें और नजर लगे व्यक्ति के ऊपर से सात बार उतारा करें। अब रोटी को किसी चौराहे पर रख आएं।


6. लहसुन, राई, नमक, प्याज़ के छिलके एवं सूखी लाल मिर्च | इन सबको नजर लगे बच्चे से सात बार उतारकर अंगारों पर डाल दें | जलने पर बदबू न आए तो समझें नजर लगी है। इस उपाय से नजर उतर भी जाएगी।
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Monday 23 April 2018

ज्योतिष शास्त्र में राहु

                         

राहु -
नीलाम्बरो नीलवपु: किरीटी करालवक्त्र: करवालशूली। चतुर्भुजश्चक्रधरश्च राहु: सिंहाधिरूढो वरदोऽस्तु मह्यम॥
राहु और केतु की प्रतिष्ठा अन्य ग्रहों की भांति ही है। यद्यपि यह सूर्य चन्द्र मंगल आदि की भांति कोई धरातल वाला ग्रह नही है,इसलिये राहु और केतु को छाया ग्रह कहा जाता है,राहु के सम्बन्ध में अनेक पौराणिक आख्यान है,शनि की भांति राहु से भी लोग भयभीत रहते है,दक्षिण भारत में तो लोग राहु काल में कोई कार्य भी नही करते हैं। राहु के सम्बन्ध में समुद्र मंथन वाली कथा से प्राय: सभी परिचित है,एक पौराणिक आख्यान के अनुसार दैत्यराज हिरण्य कशिपु की पुत्री सिंहिका का पुत्र था,उसके पिता का नाम विप्रचित था। विप्रचित के सहसवास से सिंहिका ने सौ पुत्रों को जन्म दिया उनमें सबसे बडा पुत्र राहु था। देवासुर संग्राम में राहु भी भाग लिया तो वह भी उसमें सम्मिलित हुआ। समुद्र मंथन के फ़लस्वरूप प्राप्त चौदह रत्नों में अमृत भी था,जब विष्णु सुन्दरी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पान करा रहे थे,तब राहु उनका वास्तविक परिचय और वास्तविक हेतु जान गया। वह तत्काल माया से रूप धारण कर एक पात्र ले आया,और अन्य देवतागणों के बीच जा बैठा,सुन्दरी का रूप धरे विष्णु ने उसे अमृत पान करवा दिया,तभी सूर्य और चन्द्र ने उसकी वास्तविकता प्रकट कर दी,विष्णु ने अपने चक्र से राहु का सिर काट दिया,अमृत पान करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया,उसका शरीर कांपता हुआ गौतमी नदी के तट पर गिरा,अमृतपान करने के कारण राहु का धड भी अमरत्व पा चुका था।
इस तथ्य से देवता भयभीत हो गये,और शंकरजी से उसके विनास की प्रार्थना की,शिवजी ने राहु के संहार के लिये अपनी श्रेष्ठ चंडिका को मातृकाओं के साथ भेजा,सिर देवताओं ने अपने पास रोके रखा,लेकिन बिना सिर की देह भी मातृकाओं के साथ युद्ध करती रही। अपनी देह को परास्त होता न देख राहु का विवेक जागृत हुआ,और उसने देवताओं को परामर्श दिया कि इस अविजित देह के नाश लिये उसे पहले आप फ़ाड दें,ताकि उसका व्ह उत्तम रस निवृत हो जाये,इसके उपरांत शरीर क्षण मात्र में भस्म हो जायेगा,राहु के परामर्श से देवता प्रसन्न हो गये,उन्होने उसका अभिषेक किया,और ग्रहों के मध्य एक ग्रह बन जाने का ग्रहत्व प्रदान किया,बाद में देवताओं द्वारा राहु के शरीर की विनास की युक्ति जान लेने पर देवी ने उसका शरीर फ़ाड दिया,और अम्रुत रस को निकालकर उसका पान कर लिया।ग्रहत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी राहु सूर्य और चन्द्र को अपनी वास्तविकता के उद्घाटन के लिये क्षमा नही कर पाया,और पूर्णिमा और अमावस्या के समय चन्द्र और सूर्य के ग्रसने का प्रयत्न करने लगा। राहु के एक पुत्र मेघदास का भी उल्लेख मिलता है,उसने अपने पिता के बैर का बदला चुकाने के लिये घोर तप किया,पुराणो में राहु के सम्बन्ध में अनेक आख्यान भी प्राप्त होते है।

खगोलीय विज्ञान में राहु -
राहु और केतु आकाशीय पिण्ड नही है,वरन राहु चन्द्रमा और कांतिवृत का उत्तरी कटाव बिन्दु है। उसे नार्थ नोड के नाम से जाना जाता है। वैसे तो प्रत्येक ग्रह का प्रकास को प्राप्त करने वाला हिस्सा राहु का क्षेत्र है,और उस ग्रह पर आते हुये प्रकाश के दूसरी तरफ़ दिखाई देने वाली छाया केतु का क्षेत्र कहलाता है। यथा ब्रहमाण्डे तथा पिण्डे के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ राहु केतु आन्तरिक रूप से जुडे हुये है।कारण जो दिखाई देता है,वह राहु है और जो अन्धेरे में है वह केतु है।

ज्योतिष शास्त्र में राहु -
भारतीय ज्योतिष शास्त्रों में राहु और केतु को अन्य ग्रहों के समान महत्व दिया गया है,पाराशर ने राहु को तमों अर्थात अंधकार युक्त ग्रह कहा है,उनके अनुसार धूम्र वर्णी जैसा नीलवर्णी राहु वनचर भयंकर वात प्रकृति प्रधान तथा बुद्धिमान होता है,नीलकंठ ने राहु का स्वरूप शनि जैसा निरूपित किया है। सामन्यत: राहु और केतु को राशियों पर आधिपत्य प्रदान नही किया गया है,हां उनके लिये नक्षत्र अवश्य निर्धारित हैं। तथापि कुछ आचार्यों ने जैसे नारायण भट्ट ने कन्या राशि को राहु के अधीन माना है,उनके अनुसार राहु मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है।

राहु के नक्षत्र -
राहु के नक्षत्र आर्द्रा स्वाति और शतभिषा है,इन नक्षत्रों में सूर्य और चन्द्र के आने पर या जन्म राशि में ग्रह के होने पर राहु का असर शामिल हो जाता है।

एक और धारणा -
हमारे विचार से राहु का वर्ण नीलमेघ के समान है,यह सूर्य से १९००० योजन से नीचे की ओर स्थित है,तथा सूर्य के चारों ओर नक्षत्र की भांति घूमता रहता है। शरीर में इसे पिट और पिण्डलियों में स्थान मिला है,जब जातक के विपरीत कर्म बन जाते है,तो उसे शुद्ध करने के लिये अनिद्रा पेट के रोग मस्तिष्क के रोग पागलपन आदि भयंकर रोग देता है,जिस प्रकार अपने निन्दनीय कर्मों से दूसरों को पीडा पहुंचाई थी उसी प्रकार भयंकर कष्ट देता है,और पागल तक बना देता है,यदि जातक के कर्म शुभ हों तो ऐसे कर्मों के भुगतान कराने के लिये अतुलित धन संपत्ति देता है,इसलिये इन कर्मों के भुगतान स्वरूप उपजी विपत्ति से बचने के लिये जातक को राहु की शरण में जाना चाहिये,तथा पूजा पाठ जप दान आदि से प्रसन्न करना चाहिये। गोमेद इसकी मणि है,तथा पूर्णिमा इसका दिन है। अभ्रक इसकी धातु है।

द्वादश भावों में राहु -
राहु प्रथम भाव में शत्रुनाशक अल्प संतति मस्तिष्क रोगी स्वार्थी सेवक प्रवृत्ति का बनाता है।
राहु दूसरे भाव में कुटुम्ब नाशक अल्प संतति मिथ्या भाषी कृपण और शत्रु हन्ता बनाता है।
राहु तीसरे भाव में विवेकी बलिष्ठ विद्वान और व्यवसायी बनाता है।
राहु चौथे भाव में स्वभाव से क्रूर कम बोलने वाला असंतोषी और माता को कष्ट देने वाला होता है।
राहु पंचम भाग्यवान कर्मठ कुलनाशक और जीवन साथी को सदा कष्ट देने वाला होता है।
राहु छठे भाव में बलवान धैर्यवान दीर्घवान अनिष्टकारक और शत्रुहन्ता बनाता है।
राहु सप्तम भाव में चतुर लोभी वातरोगी दुष्कर्म प्रवृत्त एकाधिक विवाह और बेशर्म बनाता है।
राहु आठवें भाव में कठोर परिश्रमी बुद्धिमान कामी गुप्त रोगी बनाता है।
राहु नवें भाव में सदगुणी परिश्रमी लेकिन भाग्य में अंधकार देने वाला होता है।
राहु दसवें भाव में व्यसनी शौकीन सुन्दरियों पर आसक्त नीच कर्म करने वाला होता है।
राहु ग्यारहवें भाव में मंदमति लाभहीन परिश्रम करने वाला अनिष्ट्कारक और सतर्क रखने वाला बनाता है।
राहु बारहवें भाव में मंदमति विवेकहीन दुर्जनों की संगति करवाने वाला बनाता है।
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चेतावनी -
राहु के लिये जातक अपनी जन्म कुन्डली में देखें राहु प्रथम द्वितीय चतुर्थ पंचम सप्तम अष्टम नवम द्वादस भावों में किसी भी राशि का विशेषकर नीच का बैठा हो,तो निश्चित ही आर्थिक मानसिक भौतिक पीडायें अपनी महादशा अन्तरदशा में देता है,इसमे कोई संसय नही है। समय से पहले यानि महादशा अन्तरदशा आरम्भ होने से पहले राहु के बीज मन्त्र का अवश्य जाप कर लेना चाहिये। ताकि राहु प्रताडित न करे और वह समय सुख पूर्वक व्यतीत हो,याद रखें अस्त राहु भयंकर पीडाकारक होता है,चाहे वह किसी भी भाव का क्यों न हो।

राहु की विशेषता -
राहु छाया ग्रह है,ग्रन्थों मे इसका पूरा वर्णन है,और श्रीमदभागवत महापुराण में तो शुकदेवजी ने स्पष्ट वर्णन किया कि यह सूर्य से १० हजार योजन नीचे स्थित है,और श्याम वर्ण की किरणें निरन्तर पृथ्वी पर छोडता रहता है,यह मिथुन राहि में उच्च का होता है धनु राशि में नीच का हो जाता है,राहु और शनि रोग कारक ग्रह है,इसलिये यह ग्रह रोग जरूर देता है। काला जादू तंत्र टोना आदि यही ग्रह अपने प्रभाव से करवाता है।अचानक घटनाओं के घटने के योग राहु के कारण ही होते है,और षष्टांश में क्रूर होने पर ग्रद्य रोग हो जाते है।राहु के बारे में हमे बहुत ध्यान से समझना चाहिये,बुध हमारी बुद्धि का कारक है,जो बुद्धि हमारी सामान्य बातों की समझ से सम्बन्धित है,जैसे एक ताला लगा हो और हमारे पास चाबियों का गुच्छा है,जो बुध की समझ है तो वह कहेगा कि ताले के अनुसार इस आकार की चाबी इसमे लगेगी,दस में से एक या दो चाबियों का प्रयोग करने के बाद वह ताला खुल जायेगा,और यदि हमारी समझ कम है,तो हम बिना बिचारे एक बाद एक बडे आकार की चाबी का प्रयोग भी कर सकते है,जो ताले के सुराख से भी बडी हो,बुध की यह बौद्धिक शक्ति है क्षमता है,वह हमारी अर्जित की हुई जानकारी या समझ पर आधारित है,जैसे कि यह आदमी बडा बुद्धिमान है,क्योंकि अपनी बातचीत में वह अन्य कई पुस्तकों के उदाहरण दे सकता है,तो यह सब बुध पर आधारित है,बुध की प्रखरता पर निर्भर है,और बुध का इष्ट है दुर्गा।राहु का इष्ट है सरस्वती,सम्भवत: आपको यह अजीब सा लगे कि राहु का इष्ट देवता सरस्वती क्यों है,क्योंकि राहु हमारी उस बुद्धि का कारक है,जो ज्ञान हमारी बुद्धि के बावजूद पैदा होता है,जैसे आविष्कार की बात है,गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त न्यूटन ने पेड से सेब गिरने के आधार पर खोजा,यह सिद्धान्त पहले उसकी याददास्त में नही था,यहां जब दिमाग में एकदम विचार पैदा हुआ,उसका कारण राहु है,बुध नही होगा,जैसे स्वप्न का कारक राहु है,एक दिन अचानक हमारा शरीर अकडने लगा,दिमाग में तनाव घिर गया,चारों तरफ़ अशांति समझ में आने लगी,घबराहट होने लगी,मन में आने लगा कि संसार बेकार है,और इस संसार से अपने को हटा लेना चाहिये,अब हमारे पास इसका कारण बताने को तो है नही,जो कि हम इस बात का विश्लेषण कर लेते,लेकिन यह जो मानसिक विक्षिप्तता है,इसका कारण राहु है,इस प्रकार की बुद्धि का कारक राहु है,राहु के अन्दर दिमाग की खराब आलमतों को लिया गया है,बेकार के दुश्मन पैदा होना,यह मोटे तौर पर राहु के अशुभ होने की निशानी है,राहु हमारे ससुराल का कारक है,ससुराल से बिगाड कर नही चलना,इसे सुधारने के उपाय है,सिर पर चोटी रखना राहु का उपाय है,आपके दिमाग में आ रहा होगा कि चोटी और राहु का क्या सम्बन्ध है,चोटी तो गुरु की कारक है,जो लोग पंडित होते है पूजा पाठ करते है,धर्म कर्म में विश्वास करते है,वही चोटी को धारण करते है,राहु को अपना कोई भाव नही दिया गया है,इस प्रकार का कथन वैदिक ज्योतिष में तो कहा गया है,पाश्चात्य ज्योतिष में भी राहु को नार्थ नोड की उपाधि दी गयी है,लेकिन कुन्डली का बारहवां भाव राहु का घर नही है तो क्या है,इस अनन्त आकाश का दर्शन राहु के ही रूप में तो दिखाई दे रहा है,इस राहु के नीले प्रभाव के अन्दर ही तो सभी ग्रह विद्यमान है,और जितना दूर हम चले जायेंगे,यह नीला रंग तो कभी समाप्त नही होने वाला। राहु ही ब्रह्माण्ड का दृश्य रूप है।

राहु की अपनी कोई राशि नही है -
राहु की अपनी कोई राशि नही है,यह जिस ग्रह के साथ बैठता है वहां तीन कार्य करता है।
१.यह उस ग्रह की पूरी शक्ति समाप्त कर देता है।
२.यह उस ग्रह और भाव की शक्ति खुद लेलेता है।
३.यह उस भाव से सम्बन्धित फ़लों को दिलवाने के पहले बहुत ही संघर्ष करवाता है फ़िर सफ़लता देता है।
कहने का तात्पर्य है कि बडा भारी संघर्ष करने के बाद सत्ता देता है और फ़िर उसे समाप्त करवा देता है।

राहु कूटनीति का ग्रह है -
राहु कूटनीति का सबसे बडा ग्रह है,राहु जहां बैठता है शरीर के ऊपरी भाग को अपनी गंदगी से भर देता है,यानी दिमाग को खराब करने में अपनी पूरी पूरी ताकत लगा देता है। दांतों के रोग देता है,शादी अगर किसी प्रकार से राहु की दशा अन्तर्दशा में कर दी जाती है,तो वह शादी किसी प्रकार से चल नही पाती है,अचानक कोई बीच वाला आकर उस शादी के प्रति दिमाग में फ़ितूर भर देता है,और शादी टूट जाती है,कोर्ट केश चलते है,जातिका या जातक को गृहस्थ सुख नही मिल पाते है।इस प्रकार से जातक के पूर्व कर्मो को उसी रूप से प्रायश्चित कराकर उसको शुद्ध कर देता है।

राहु जेल और बन्धन का कारक है -
राहु का बारहवें घर में बैठना बडा अशुभ होता है,क्योंकि यह जेल और बन्धन का मालिक है,१२ वें घर में बैठ कर अपनी महादशा अन्तर्दशा में या तो पागलखाने या अस्पताल में या जेल में बिठा देता है,यह ही नही अगर कोई सदकर्मी है,और सत्यता तथा दूसरे के हित के लिये अपना भाव रखता है,तो एक बन्द कोठरी में भी उसकी पूजा करवाता है,और घर बैठे सभी साधन लाकर देता है। यह साधन किसी भी प्रकार के हो सकते है।

राहु संघर्ष करवाता है -
हजारों कुन्डलियों को देखा,जो महापुरुष या नेता हुये उन्होने बडे बडे संघर्ष किये तब जाकर कहीं कुर्सी पर बैठे,जवाहर लाल नेहरू सुभाषचन्द्र बोस सरदार पटेल जिन्होने जीवन भर संघर्ष किया तभी इतिहास में उनका नाम लिखा गया,हिटलर की कुन्डली में भी द्सवें भाव में राहु था,जिसके कारण किसी भी देश या सरकार की तरफ़ मात्र देखलेने की जरूरत से उसको मारकाट की जरूरत नही पडती थी।

राहु १९वीं साल में जरूर फ़ल देता है -
यह एक अकाट्य सत्य है कि किसी कुन्डली में राहु जिस घर में बैठा है,१९ वीं साल में उसका फ़ल जरूर देता है,सभी ग्रहों को छोड कर यदि किसी का राहु सप्तम में विराजमान है,चाहे शुक्र विराजमान हो,या बुध विराजमान हो या गुरु विराजमान हो,अगर वह स्त्री है तो पुरुष का सुख और पुरुष है तो स्त्री का सुख यह राहु १९ वीं साल में जरूर देता है। और उस फ़ल को २० वीं साल में नष्ट भी कर देता है। इसलिये जिन लोगों ने १९ वीं साल में किसी से प्रेम प्यार या शादी कर ली उसे एक साल बाद काफ़ी कष्ट हुये। राहु किसी भी ग्रह की शक्ति को खींच लेता है,और अगर राहु आगे या पीछे ६ अंश तक किसी ग्रह के है तो वह उस ग्रह की सम्पूर्ण शक्ति को समाप्त ही कर देता है।

राहु की दशा १८ साल की होती है -
राहु की दशा का समय १८ साल का होता है,राहु की चाल बिलकुल नियमित है,तीन कला और ग्यारह विकला रोजाना की चाल के हिसाब से वह अपने नियत समय पर अपनी ओर से जातक को अच्छा या बुरा फ़ल देता है,राहु की चाल से प्रत्येक १९ वीं साल में जातक के साथ अच्छा या बुरा फ़ल मिलता चला जाता है,अगर जातक की १९ वीं साल में किसी महिला या पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बने है,तो उसे ३८ वीं साल में भी बनाने पडेंगे,अगर जातक किसी प्रकार से १९ वीं साल में जेल या अस्पताल या अन्य बन्धन में रहा है,तो उसे ३८ वीं साल में,५७ वीं साल में भी रहना पडेगा। राहु की गणना के साथ एक बात और आपको ध्यान में रखनी चाहिये कि जो तिथि आज है,वही तिथि आज के १९ वीं साल में होगी।

राहु चन्द्र हमेशा चिन्ता का योग बनाते हैं -
राहु और चन्द्र किसी भी भाव में एक साथ जब विराजमान हो,तो हमेशा चिन्ता का योग बनाते है,राहु के साथ चन्द्र होने से दिमाग में किसी न किसी प्रकार की चिन्ता लगी रहती है,पुरुषों को बीमारी या काम काज की चिन्ता लगी रहती है,महिलाओं को अपनी सास या ससुराल खानदान के साथ बन्धन की चिन्ता लगी रहती है। राहु और चन्द्रमा का एक साथ रहना हमेशा से देखा गया है,कुन्डली में एक भाव के अन्दर दूरी चाहे २९ अंश तक क्यों न हो,वह फ़ल अपना जरूर देता है। इसलिये राहु जब भी गोचर से या जन्म कुन्डली की दशा से एक साथ होंगे तो जातक का चिन्ता का समय जरूर सामने होगा।

पंचम का राहु औलाद और धन में धुंआ उडा देता है -
राहु का सम्बन्ध दूसरे और पांचवें स्थान पर होने पर जातक को सट्टा लाटरी और शेयर बाजार से धन कमाने का बहुत शौक होता है,राहु के साथ बुध हो तो वह सट्टा लाटरी कमेटी जुआ शेयर आदि की तरफ़ बहुत ही लगाव रखता है,अधिकतर मामलों में देखा गया है कि इस प्रकार का जातक निफ़्टी और आई.टी. वाले शेयर की तरफ़ अपना झुकाव रखता है। अगर इसी बीच में जातक का गोचर से बुध अस्त हो जाये तो वह उपरोक्त कारणों से लुट कर सडक पर आजाता है,और इसी कारण से जातक को दरिद्रता का जीवन जीना पडता है,उसके जितने भी सम्बन्धी होते है,वे भी उससे परेशान हो जाते है,और वह अगर किसी प्रकार से घर में प्रवेश करने की कोशिश करता है,तो वे आशंकाओं से घिर जाते है। कुन्डली में राहु का चन्द्र शुक्र का योग अगर चौथे भाव में होता है तो जातक की माता को भी पता नही होता है कि वह औलाद किसकी है,पूरा जीवन माता को चैन नही होता है,और अपने तीखे स्वभाव के कारण वह अपनी पुत्र वधू और दामाद को कष्ट देने में ही अपना सब कुछ समझती है।

सही भाव में राहु-गुरु चांडाल योग को हटाकर यान चालक बनाता है
बुध अस्त में जन्मा जातक कभी भी राहु वाले खेल न खेले तो बहुत सुखी रहता है,राहु का सम्बन्ध मनोरंजन और सिनेमा से भी है,राहु वाहन का कारक भी है राहु को हवाई जहाज के काम,और अंतरिक्ष में जाने के कार्य भी पसंद है,अगर किसी प्रकार से राहु और गुरु का आपसी सम्बन्ध १२ भाव में सही तरीके से होता है,और केतु सही है,तो जातक को पायलेट की नौकरी करनी पडती है,लेकिन मंगल साथ नही है तो जातक बजाय पायलेट बनने के और जिन्दा आदमियों को दूर पहुंचाने के पंडिताई करने लगता है,और मरी हुयी आत्माओं को क्रिया कर्म का काम करने के बाद स्वर्ग में पहुंचाने का काम भी हो जाता है। इसलिये बुध अस्त वाले को लाटरी सट्टा जुआ शेयर आदि से दूर रहकर ही अपना जीवन मेहनत वाले कामों को करके बिताना ठीक रहता है।

राहु के साथ मंगल व्यक्ति को आतंकवादी बना देता है -
राहु के साथ मंगल वाला व्यक्ति धमाके करने में माहिर होता है,उसे विस्फ़ोट करने और आतिशबाजी के कामों की महारता हाशिल होती है,वह किसी भी प्रकार बारूदी काम करने के बाद जनता को पलक झपकते ही ठिकाने लगा सकता है। राहु तेज हथियार के रूप में भी जाना जाता है,अगर कुन्डली में शनि मंगल राहु की युति है,तो बद मंगल के कारण राहु व्यक्ति को कसाई का रूप देता है,उसे मारने काटने में आनन्द महसूस होता है।

राहु गुरु अपनी जाति को छुपाकर ऊंचा बनने की कोशिश करता है -
राहु के साथ जब गुरु या तो साथ हो या आगे पीछे हो तो वह अपनी शरारत करने से नहीं हिचकता है,जिस प्रकार से एक पल्लेदार टाइप व्यक्ति किसी को मारने से नही हिचकेगा,लेकिन एक पढा लिखा व्यक्ति किसी को मारने से पहले दस बार कानून और भलाई बुराई को सोचेगा। राहु के साथ शनि होने से राहु खराब हो जाता है,जिसके भी परिवार में इस प्रकार के जातक होते है वे शराब कबाव और भूत के भोजन में अपना विश्वास रखते है,और अपनी परिवारिक मर्यादा के साथ उनकी जमी जमाई औकात को बरबाद करने के लिये ही आते है,और बरबाद करने के बाद चले जाते है। इस राहु के कारण शुक्र अपनी मर्यादा को भूल कर अलावा जाति से अपना सम्बन्ध बना बैठता है,और शादी अन्य जाति में करने के बाद अपने कुल की मर्यादा को समाप्त कर देता है,शुक्र का रूप राहु के साथ चमक दमक से जुड जाता है। राहु के साथ शनि की महादशा या अन्तर्दशा चलती है तो सभी काम काज समाप्त हो जाते है।

राहु सम्बन्धी अन्य विवरण -
राहु से सम्बन्धित रोग उनके निवारण हेतु उपाय राहु के रत्न उपरत्न राहु से सम्बन्धित जडी बूटियां राहु के निमित्त उपाय और रत्न आदि धारण करने की विधि मंत्र स्तोत्र आदि का विवरण इस प्रकार से है।

राहु के रोग -
राहु से ग्रस्त व्यक्ति पागल की तरह व्यवहार करता है पेट के रोग दिमागी रोग पागलपन खाजखुजली भूत चुडैल का शरीर में प्रवेश बिना बात के ही झूमना,नशे की आदत लगना,गलत स्त्रियों या पुरुषों के साथ सम्बन्ध बनाकर विभिन्न प्रकार के रोग लगा लेना,शराब और शबाब के चक्कर में अपने को बरबाद कर लेना,लगातार टीवी और मनोरंजन के साधनों में अपना मन लगाकर बैठना,होरर शो देखने की आदत होना,भूत प्रेत और रूहानी ताकतों के लिये जादू या शमशानी काम करना,शरीर की नशें काटकर उनसे खून निकाल कर अपने खून रूपी मंगल को समाप्त कर जीवन को समाप्त करना,ड्र्ग लेने की आदत डाल लेना,नींद नही आना,शरीर में चींटियों के रेंगने का अहसास होना,गाली देने की आदत पड जाना,सडक पर गाडी आदि चलाते वक्त अपना पौरुष दिखाना या कलाबाजी दिखाने के चक्कर में शरीर को तोड लेना,जैसे ,इन रोगों के अन्य रोग भी राहु के है,जैसे कि किसी दूसरे के मामले में अपने को दाखिल करने के बाद दो लोगों को आपस में लडाकर दूर बैठ कर तमाशा देखना,लोगों को पोर्न साइट बनाकर या क्लिप बनाकर लूटने की क्रिया करना और इन कामों के द्वारा जनता का जीवन बिना किसी हथियार के बरबाद करना भी है। अगर उपरोक्त प्रकार के भाव मिलते है,तो समझना चाहिये कि किसी न किसी प्रकार से राहु का प्रकोप शरीर पर है,या तो गोचर से राहु अपनी शक्ति देकर मनुष्य जीवन को जानवर की गति प्रदान कर रहा है,अथवा राहु की दशा चल रही है,और पुराने पूर्वजों की गल्तियों के कारण जातक को इस प्रकार से उनके पाप भुगतने के लिये राहु प्रयोग कर रहा है।

राहु के रत्न उप रत्न -
राहु के समय में अधिक से अधिक चांदी पहननी चाहिये.
राहु के रत्न गोमेद,तुरसा,साफ़ा आदि माने जाते है,लेकिन राहु के लिये कभी भी रत्नों को चांदी के अन्दर नही धारण करना चाहिये,क्योंकि चांदी के अन्दर राहु के रत्न पहिनने के बाद वह मानसिक चिन्ताओं को और बढा देता है,गले में और शरीर में खाली चांदी की वस्तुयें पहिनने से फ़ायदा होता है। बुधवार या शनिवार को को मध्य रात्रि में आर्द्रा नक्षत्र में अच्छा रत्न धारण करने के बाद ४० प्रतिशत तक फ़ायदा हो जाता है,रत्न की जब तक उसके ग्रह के अनुसार विधि विधान पूर्वक प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती है,तो वह रत्न पूर्ण प्रभाव नही देता है,इसलिये रत्न पहिनने से पहले अर्थात अंगूठी या पेन्डल में लगवाने के बाद प्राण प्रतिष्ठा अवश्य करवालेनी चाहिये। क्योंकि पत्थर अपने आप में पत्थर ही है,जिस प्रकार से किसी मूर्ति को दुकान से लाने के बाद उसे मन्दिर में स्थापित करने के बाद प्रतिष्ठा करने के बाद ही वह फ़ल देना चालू करती है,और प्राण प्रतिष्ठा नही करवाने पर पता नही और कौन सी आत्मा उसके अन्दर आकर विराजमान हो जावे,और बजाय फ़ल देने के नुकसान देने लगे,उसी प्रकार से रत्न की प्राण प्रतिष्ठा नही करने पर भी उसके अन्दर और कौन सी शक्ति आकर बैठ जावे और जो किया जय वह खाकर गलत फ़ल देने लगे,इसका ध्यान रखना चाहिये,राहु की दशा और अन्तर दशा में तथा गोचर में चन्द्र सूर्य और लगन पर या लगनेश चन्द्र लगनेश या सूर्य लगनेश के ऊपर जब राहु की युति हो तो नीला कपडा भूल कर नही पहिनना चाहिये,क्योंकि नीला कपडा राहु का प्रिय कपडा है,और उसे एकपडे के पहिनने पर या नीली वस्तु प्रयोग करने पर जैसे गाडी या सामान पता नही कब हादसा देदे यह पता नही होता है।

राहु की जडी बूटियां -
चंदन को माथे में लगाने वाला राहु से नही घबराता.
रत्न की अनुपस्थिति में राहु के लिये जडी बूटियों का प्रयोग भी आशातीत फ़ायदा देता है,इसकी जडी बूटियों में सफ़ेद चंदन को महत्ता दी गयी है,इसे आर्द्रा नक्षत्र में बुधवार या शनिवार को आधी रात के समय काले धागे में बांध कर पुरुष अपनी दाहिनी बाजू में और स्त्रियां अपनी बायीं बाजू में धारण कर सकती है। इसके धारण करने के बाद राहु का प्रभाव कम होना चालू हो जाता है।

राहु के लिये दान -
आर्द्रा स्वाति शभिषा नक्षत्रों के काल में अभ्रक लौह जो हथियार के रूप में हो,तिल जो कि किसी पतली किनारी वाली तस्तरी में हो,नीला कपडा,छाग,तांबे का बर्तन,सात तरह के अनाज,उडद (माह),गोमेद,काले फ़ूल,खुशबू वाला तेल,धारी वाले कम्बल,हाथी का बना हुआ खिलौना,जौ धार वाले हथियार आदि।

राहु से जुडे व्यापार और नौकरी -
यदि राहु अधिक अंशों में बलवान है,तो इस प्रकार व्यापार और नौकरी फ़ायदा देने वाले होते है,गांजा,अफ़ीम,भांग,रबड का व्यापार,लाटरी कमीशन, सर्कस की नौकरी,सिनेमा में नग्न दृश्य,प्रचार और मीडिया वाले कार्य,म्यूनिसपल्टी के काम,सडक बनाने के काम,जिला परिषद के काम,विधान सभा और लोक सभा के काम,उनकी सदस्यता आदि।

राहु का वैदिक मंत्र -
राहु ग्रह सम्बन्धित पाठ पूजा आदि के स्तोत्र मंत्र तथा राहु गायत्री को पाठको की सुविधा के लिये यहां मै लिख रहा हूँ,वैदिक मंत्र अपने आप में अमूल्य है,इनका कोई मूल्य नही होता है,किसी दुखी व्यक्ति को प्रयोग करने से फ़ायदा मिलता है,तो मै समझूंगा कि मेरी मेहनत वसूल हो गयी है।

राहु मंत्र का विनियोग -
ऊँ कया निश्चत्रेति मंत्रस्य वामदेव ऋषि: गायत्री छन्द: राहुर्देवता: राहुप्रीत्यर्थे जपे विनोयोग:॥
दाहिने हाथ में जाप करते वक्त पानी या चावल ले लें,और यह मंत्र जपते हुये वे चावल या पानी राहुदेव की प्रतिमा या यंत्र पर छोड दें।

राहु मंत्र का देहागंन्यास -
कया शिरसि। न: ललाटे। चित्र मुखे। आ कंठे । भुव ह्रदये। दूती नाभौ। सदा कट्याम। वृध: मेढ्रे सखा ऊर्वौ:। कया जान्वो:। शचिष्ठ्या गुल्फ़यो:। वृता पादयो:।
क्रम से सिर माथा मुंह कंठ ह्रदय नाभि कमर छाती जांघे गुदा और पैरों को उपरोक्त मंत्र बोलते हुये दाहिने हाथ से छुये।

राहु मंत्र का करान्यास -
कया न: अंगुष्ठाभ्यां नम:। चित्र आ तर्ज्जनीभ्यां नम:। भुवदूती मध्यमाभ्यां नम:। सदावृध: सखा अनामिकाभ्यां नम:। कया कनिष्ठकाभ्यां नम:। शचिष्ट्या वृता करतलपृष्ठाभ्यां नम:॥

राहु मंत्र का ह्रदयान्यास -
कयान: ह्रदयाय नम:। चित्र आ शिर्षे स्वाहा। भुवदूती शिखायै वषट। सदावृध: सखा कवचाय: हुँ। कया नेत्रत्रयाय वौषट। शचिष्ठ्या वृता अस्त्राय फ़ट।

राहु मंत्र के लिये ध्यान -
नीलाम्बरो नीलवपु: किरीटी करालवक्त्र: करवालशूली। चतुर्भुजश्चक्रधरश्च राहु: सिंहाधिरूढो वरदोऽस्तु मह्यम॥

राहु गायत्री -
नीलवर्णाय विद्यमहे सैहिकेयाय धीमहि तन्नो राहु: प्रचोदयात ।

राहु का वैदिक बीज मंत्र -
ऊँ भ्राँ भ्रीँ भ्रौँ स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ कया नश्चित्रऽआभुवदूती सदावृध: सखा। कया शचिष्ठ्या व्वृता ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: भ्रौँ भ्रीँ भ्राँ ऊँ राहुवे नम:॥

राहु का जाप मंत्र -
ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहुवे नम:॥ १८००० बार रोजाना,शांति मिलने तक॥

राहु स्तोत्र -
राहु: दानव मन्त्री च सिंहिकाचित्त नन्दन:। अर्धकाय: सदा क्रोधी चन्द्र आदित्य विमर्दन:॥
रौद्र: रुद्र प्रिय: दैत्य: स्वर-भानु:-भानु भीतिद:। ग्रहराज: सुधा पायी राकातिथ्य-अभिलाषुक:॥
काल दृष्टि: काल रूप: श्री कण्ठह्रदय-आश्रय:। विधुन्तुद: सैहिकेय: घोर रूप महाबल:॥
ग्रह पीडा कर: दंष्ट्री रक्त नेत्र: महोदर:। पंचविंशति नामानि स्मृत्वा राहुं सदा नर:॥
य: पठेत महतीं पीडाम तस्य नश्यति केवलम। आरोग्यम पुत्रम अतुलाम श्रियम धान्यम पशून-तथा॥
ददाति राहु: तस्मै य: पठते स्तोत्रम-उत्तमम। सततम पठते य: तु जीवेत वर्षशतम नर:॥

राहु मंगल स्तोत्र -
राहु: सिंहल देश जश्च निऋति कृष्णांग शूर्पासनो। य: पैठीनसि गोत्र सम्भव समिद दूर्वामुखो दक्षिण:॥
य: सर्पाद्यधि दैवते च निऋति प्रत्याधि देव: सदा। षटत्रिंस्थ: शुभकृत च सिंहिक सुत: कुर्यात सदा मंगलम॥
उपरोक्त दोनो स्तोत्रों का नित्य १०८ पाठ करने से राहु प्रदत्त समस्त प्रकार की कालिमा भयंकर क्रोध अकारण मस्तिष्क की गर्मी अनिद्रा अनिर्णय शक्ति ग्रहण योग पति पत्नी विवाद तथा काल सर्प योग सदा के लिये समाप्त हो जाते हैं,स्तोत्र पाठ करने के फ़लस्वरूप अखंड शांति योग की परिपक्वता पूर्ण निर्णय शक्ति तथा राहु प्रदत्त समस्त प्रकार के कष्टों से निवृत्ति हो जाती है।

ज्योतिष में केतु

                  
केतु -
धूम्रा द्विबाहव: सर्वे गदिनो विकृतानना:। ग्रधासनागता नित्यं केतव: स्युर्वरप्रदा:॥
केतु का कोई आधार स्तम्भ नही है,चन्द्रमा के कान्तिवृत का दक्षिणी कटाव बिन्दु ही केतु कहलाता है। अन्ग्रेजी में इसे सदर्न कोड कहते है। पुराणॊं के अनुसार केतु हिरण्यकशिपु की पुत्री सिंहिका का कनिष्ट पुत्र है। केतु मोक्षकारक ग्रह है,और इसका प्रभाव मंगल ग्रह की तरह है। केतु असंख्य है,इनमे धूमकेतु प्रधान है,इसका रंग धुयें के समान है और यह सूर्य से दस हजार योजन नीचे है,केतु को मानव शरीर में उदर के निचले भाग तथा पैरों मे तलवों में स्थान मिला है,यह उदर को सही रख पाचन क्रिया को सही चलाकर पैरों द्वारा प्राणी को चलने की शक्ति प्रदान करता है। यह साधक को सिद्ध अवस्था प्राप्त करने में तथा उसके मन और बुद्धि की समस्य वृत्तियों को केन्द्रित कर उसके मनोबल को ऊर्ध्व गति प्रदान कर परमात्मा के चरणों का दिव्य रस पान करवाने में सहायक होता है। यह उच्च का हो और इसकी महादशा हो तो परमात्मा में मन लगता है,आध्यात्मिक लोगों को मोक्ष दिलाने में यह बहुत ही सहायता करवाता है। केतु के नक्षत्रों में अश्विनी, मघा और मूल है।

जन्म पत्री में केतु -
जन्म पत्री के विभिन्न भावों में केतु अपने अनुसार फ़लकारक बनता है,पहले भाव में यह मन को अशांत रखता है,दिमाग में चंचलता देता है,भाइयों को कष्ट देता है,शरीर में वायु का प्रकोप देता है,दूसरे भाव में पिता के धन को कठिनाई से दिलवाता है,भौतिक साधनों की तरफ़ से मन को हटाता है अथवा पास में होने वाले भौतिक साधनों को बरबाद करता है। तीसरे भाव में भी मन में चंचलता देता है,लोगों के साथ चलने का मानस देता है सदा दूसरों की सहायता करने के लिये आगे करता है,भूत प्रेत आदि में आशक्ति देता है,चौथे भाव का केतु माता पिता के सुख से दूर करता है,उत्साह में कमी देता है,दिमाग में नकारात्मक प्रभाव देता है,किसी भी बात में संतुष्टि नही देता है। पंचम भाव में पराक्रमी बनाता है,अल्प संतति देता है महिलाओं की कुण्डली में संतान को आपरेशन आदि से पैदा करता है,कम संतान देता है,भाइयों से कष्ट देता है। छठे भाव में सुखी बनाता है,कर्जा दुश्मनी और बीमारी में कमी देता है,अक्सर पेट की बीमारियों के अलावा और कोई अधिक बीमारियां नही होती है,बुढापे में जोडों के दर्द की बीमारी देता है,अन्य ग्रह कमजोर होने पर प्रेत बाधा को पैदा करता है। सप्तम में भी मन को अशांत करता है,बेकार की चिन्ता करने के लिये कोई ना कोई कारण पैदा करता है,जीवन साथी और पुत्रो को पीडा पैदा करने में अपनी अहम भूमिका अदा करता है,पानी से भय देता है। अष्टम भाव में शरीर के तेज को कम करता है,जीवन साथी से बैर करवाता है,धन की कमी देता है और धन को अक्सर मौत वाले कारणों में व्यय करवाता है। नवम भाव में केतु भाग्यवान बनाता है दूसरों का हित करवाता है,भाई और बन्धुओं की सेवा करवाता है सर्व धर्म की तरफ़ जाने का इशारा करता है,दसवें भाव में भाग्यवान होने के बावजूद भी कष्ट देता है पिता के सुख से दूर करता है,दिमाग में घमंड देता है जीवन साथी को रीढ की हड्डी की बीमारी देता है,ग्यारहवे भाव में धनी बनाता है सुखी रखता है बडे भाई को मिलाकर चलता है सदगुण पैदा करता है बारहवे भाव का केतु उच्च पद पर आसीन करता है तेजस्वी बनाता है बुद्धिमान बनाता है,लेकिन शक या कपट दिमाग में पैदा करता है।
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कष्टकारक केतु -
जन्म कुंडली में केतु अगर पहले दूसरे तीसरे चौथे पांचवें सातवें आठवें भावों मे है और नीच का भी है अथवा किसी ग्रह के द्वारा पोषित किया जा रहा है तो निश्चित ही आर्थिक मानसिक भौतिक पीडा अपनी महादशा अन्तरदशा में देगा,इसमे कोई शक नही करनी चाहिये,समय से पहले यानी दशा अन्तर्दशा शुरु होने से पहले या गोचर में केतु के इन स्थानों मे आने से पहले ही केतु के बीज मंत्र का जाप कर लेना चाहिये या जाप किसी विद्वान ब्राह्मण से करवा लेना चाहिये।

केतु के रोग -
चर्मरोग मानसिक रोग आंत के रोग अतिसार दुर्घटना देना शल्य क्रिया करवाना कुंडली के छठे भाव आठवें भाव और बारहवे भाव के ग्रहों के अनुसार अपनी शिफ़्त बना लेना इसका काम है,अधिकतर मामलों में भूत प्रेत और हवा वाली बीमारियां केतु के द्वारा मानी जाती है। अगर किसी रोग में दवाइयों आदि से भी रोग ठीक नही हो तो समझना चाहिये कि केतु किसी न किसी प्रकार से दशा अन्तर्दशा से या गोचर से परेशान कर रहा है,इसलिये केतु के जाप दान पुण्य आदि करने चाहिये। अपनी व्यथा दूसरों के सामने कहने से केतु और अधिक कष्टकारी हो जाता है।

केतु के रत्न और उपरत्न -
केतु का रत्न वैदूर्य मणि यानी लहसुनिया जिसे अंग्रेजी में केट्स आई कहते है,गोदन्ती या संगी सवा पांच रत्ती वजन के बराबर मंगलवार या अमावस्या को अश्विनी नक्षत्र धारण करना चाहिये,इससे मुशीबत में चालीस प्रतिशत तक आराम मिल जाता है।

केतु की जडी बूटी -
असगंध की जड मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र में काले रंग के धागे में पुरुष और स्त्री दोनो ही दाहिने हाथ की भुजा में धारण करे,केतु चूंकि छाया ग्रह है और इसकी शिफ़्त के अनुसार कोई लिंग नही है। कुछ सीमा तक इस ग्रह का प्रभाव असगंध को धारण करने के बाद कम होना शुरु हो जायेगा।

केतु के लिये दान -
अश्विनी मघा और मूल नक्षत्रों में कस्तूरी तिल छाग काला कपडा ध्वजा सप्तधान उडद कम्बल स्वर्ण आदि ब्राह्मण को श्रद्धा पूर्वक दान करना चाहिये।

केतु के व्यापार -
तांबे का व्यापार केतु के अन्दर आता है टेलीफ़ोन कोरियर ठेकेदारी खेती सम्बन्धी काम दवाइयों का व्यापार नेटवर्किंग का काम मोबाइल टावर से जुडे काम केतु के व्यापार में आते है,सूर्य और गुरु के साथ होने पर लकडी के लट्ठों का काम,शनि के साथ होने सीमेंट के खम्भों का काम भी फ़ायदा देने वाला होता है,लोहे के खम्भे बनाने सरिया राड पाइप आदि के काम भी केतु के अन्तर्गत आते है।

केतु की नौकरी -
अलग अलग ग्रह के अनुसार केतु अपनी नौकरी करवाने के लिये माना जाता है,राशियों और ग्रहों के प्रभाव के कारण केतु अपना आस्तित्व बनाता है,जैसे गुरु के साथ केतु होने पर वह मन्दिर का पुजारी बना देता है लेकिन गुरु का सूर्य के साथ होने पर नेता बना देता है,और मंगल का असर होने पर वह राज्य के अफ़सर की कुर्सी पर बैठा देता है,शनि का साथ होने पर चपरासी बना देता है,शनि शुक्र का साथ होने पर कुली और रिक्सा चलाने वाला बना देता है,मिथुन राशि का केतु या तो डाकिया बना देता है या कोरियर की डाक बांटने वाला हरकारा बना देता है,राहु को मंगल का बल मिलने पर वह केतु को इन्फ़ोर्मेशन तकनीक का उस्ताद बना देता है आदि बाते केतु के बारे में जानी जाती है।

केतु के मंत्र -
केतु की शांति के लिये और केतु के बुरे प्रभावों से बचने के लिये शास्त्रों में केतु की पूजा का विवरण दिया गया है। नित्य एक सौ आठ पाठ करने से केतु के फ़लों में चमत्कारिक फ़ल मिलते देखे गये है। अगर जातक खुद न कर सके तो अपने नाम पिता के नाम गोत्र आदि से संकल्प करने के बाद किसी योग्य विद्वान व्यक्ति से यह पाठ करवा सकता है।

विनियोग -
केतुं कृण्वन्निति मंत्रस्य मधुच्छन्द ऋषि: गायत्री छंद: केतुर्देवता केतुप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:।

अथ देहांगन्यास -
केतुं शिरसि। कृण्वन ललाटे। अकेतवे मुखे। पेशो ह्रदये। मर्या नाभौ। अपेशसे कट्याम। सं ऊर्व्वो: । उषद्भि: जान्वो:। अजायथा: पादयो:।

अथ करन्यास -
केतुं कृण्वन अंगुष्ठाब्यां नम:। अकेतवे तर्जनीभ्याम नम:। पेशोमर्या मध्यमाभ्याम नम:। अपेशसे अनामिकाभ्याम नम:। समुषद्भि: कनिष्ठकाभ्याम नम:। अजायथा: करतलपृष्ठाभ्याम नम:।

अथ ह्रदयादिन्यास -
केतुण्कृवन ह्रदयाय नम:। अकेतवे शिरसे स्वाहा। पेशोमर्या शिखायै वषट। अपेशसे कवचाय हुँ। समुषद्भि: नेत्रत्राय वौषट। अजायथा: अस्त्राय फ़ट।

अथ ध्यानम -
धूम्रो द्विभाहुर्वरदो गदाधरो गृध्रासनस्थो विकृताननश्च। किरीटेयूरविभूषितो य: सदाऽस्तु मे केतुगण: प्रशान्त:॥

केतुगायत्री -
अत्रवाय विद्महे कपोतवाहनाय धीमहि तन्न: केतु: प्रचोदयात।

केतु का बीज मंत्र -
ऊँ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: भूभुर्व: स्व: ऊँ केतुंग कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्य्याऽअपेशसे। समुष्द्भिरजायथा। ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: स्त्रौं स्त्रीं स्त्रां ऊँ केतवे नम:।

केतु के लिये जाप मंत्र -
ऊँ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: केतवे नम:। 17000 प्रतिदिन।

केतु पंचविंशति नाम स्तोत्रम -
केतु: काल: कलयिता धूम्र केतु: विवर्णक:। लोक केतु: महाकेतु: सर्व केतु: भयप्रद:॥
रौद्र: रुद्रप्रिय: रुद्र: क्रूर कर्मा सुगन्ध धृक। पलाश धूम संकाश: चित्र यज्ञोपवीत धृक॥
तारागण विमर्दी च जैमिनेय: महाधिप:। पंचविशंति नामानि केतो: य: सततं पठेत॥
तस्य नश्यति बाधा च सर्व केतु प्रसादत:। दन धान्य पशूनां च भवेत वृद्धि: न संशय:॥

केतु मंगल स्तोत्र -
केतु: जैमिनि गोत्रज: कुश समिद वायव्य कोणे स्थित:। चित्रांग: ध्वज लांछनो हिम गुहो यो दक्षिणा शा मुख:॥
ब्रह्मा चैव सचित्र चित्र सहित: प्रत्याधि देव: सदा। । षट त्रिंस्थ: शुभ कृच्च बर्बर पति: सदा मंगलम॥

केतु क्यों परेशान करता है ?
केतु का बार बार कष्ट देना और प्राणी को आगे बढने से रोकना आदि केतु के कारण ही माना जाता है,जीव के साथ दुर्घटना को देने वाला कारक केतु है,शल्य क्रिया और भूत प्रेत की बाधा देना भी केतु के हाथ में ही होता है,लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि केतु परेशान क्यों करता है। एक कहावत है कि "क्षीणे पुण्येमर्त्यलोकेविशन्ति" के अनुसार जीव के पुण्य जब क्षीण हो जाते है तो उसे वापस मृत्यु लोक में आकर उन पुण्य को फ़िर से इकट्ठा करना पडता है,और जैसे ही पुण्य एकत्रित हो जाते है,प्राणी फ़िर से मृत्यु लोक से पलायन कर जाता है। लेकिन किये जाने वाले कर्मों के अन्दर भेद और दोष होने के कारण प्राणी को उनके अनुसार सजा भुगतनी पडती है। केतु का काम मोक्ष को देना है,वह गोचर से जिस भाव से गुजरता है उस भाव की कारक वस्तुओ और प्राणियों से मोक्ष देता चला जाता है,अगर कर्म अच्छे है तो अच्छा मोक्ष मिलता है और कर्म खराब है तो खराब मोक्ष मिलता है। जीवन में प्राणी अगर सदमार्ग पर चलता है दूसरे के हित की बात को ध्यान में रखकर कोई भी काम करता है तो उसे कोई तकलीफ़ अन्त में नही होती है,और प्राणी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये लोगों को कष्ट देता है और यह ध्यान नही रखता है कि उसके द्वारा किये जाने वाले कामो से कई लोगों को तकलीफ़ हो सकती है,कई लोग उसके काम के द्वारा आहत हो सकते है तो केतु उसे कई तरह से प्रताणित करता है,जैसे मंगल केतु मिलकर किसी ऐसी बीमारी को पैदा कर देते है जिसके द्वारा खून के अन्दर इन्फ़ेक्सन हो जाता है,और बीमारी के कीटाणु कीडे बनकर खून के अन्दर फ़ैल जाते है इन कष्टों की सीमा से जब जातक निकल जाता है तो वह ठीक भी हो सकता है और अन्तगति को भी प्राप्त हो जाता है। प्राणी के मोक्ष देने का काम परमात्मा ने केतु को सौंपा है,केतु जिस ग्रह के साथ बैठ जाता है उसी के अनुसार अपने फ़लों को देने लगता है,जैसे त्रिक भाव में शनि मंगल के साथ केतु बैठ कर व्यक्ति को दो मार्गों पर ले जाता है,या तो वह सर्जन बनाकर लोगों के दुख दूर करने का काम करता है,या रक्षा सेवा में भेजकर लोगों की सुरक्षा का काम करता है या व्यक्ति अगर घोर पाप की तरफ़ जाता है तो उसके पिछले कर्मों के अनुसार उसे कसाई का काम मिल जाता है। केतु को मोक्ष का कारक इसलिये और कहा गया है कि वह जीवन के हर काम को रोकने का काम करता है,और उसके द्वारा हर काम को रोका इसलिये जाता है कि प्राणी को पता चले कि उसने पीछे क्या गल्ती की है जिसके कारण उसे आगे बढ पाने में दिक्कत आ रही है,अगर वह अपनी भूल को सुधार लेता है तो आगे बढ जाता है और अगर अपने स्थान पर अटका रहता है तो वहीं का वही टिका रह जाता है,कष्ट भी झेलता है और काम भी पूरा नही हो पाता है। जो लोग संसार के सुखों की तरफ़ अधिक अग्रसर रहते है उन्हे यह केतु एक समय में बोध करवा देता है कि तुमने काफ़ी सांसारिक सुख भोग लिये और अब जाकर परमात्मा की तरफ़ अपना मन लगाओ और उनके चरणों में अपने सिर को रखकर अपने आगे के जीवन के लिये शांति प्राप्त करने की कोशिश करो,अधिकतर देखा होगा कि जो व्यक्ति पूरे जीवन अपने सांसारिक कार्यों की जद्दोजहद के कारण कुछ आत्मशांति का उपाय नही कर पाये है वे अन्त समय में अपने जीवन को निराट अकेले में गुजारना चाहते है,कोई अपने जीवन की शांति के लिये तीर्थ स्थानों में भटकना चालू कर देता है और कोई किसी सन्त महात्मा या अपने धर्म के अनुसार गुरु के सानिध्य मे जाकर अपने को मोक्ष देने की कोशिश करता है। लेकिन केतु का यह भी कारण सामने आता है कि व्यक्ति जब अपने किये जाने वाले कर्मों का उलंघन करता है और जो कार्य उसे करने थे,उन्हे त्याग कर अगर मोक्ष के लिये भागता है तो भी केतु उसे मोक्ष में भी जाने से रोकता है और व्यक्ति अपने समय तथा जीवन की शक्ति को बेकार में क्षीण करता है। महाभारत की कथा में कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण से यह वर मांगा था कि वे कुन्ती को केवल कष्ट दें,इसका कारण भी यह था कि जब प्राणी के पास कष्ट आता है तो उसके दिमाग में मन में केवल उसके माने जाने वाले भगवान का ही चेहरा सामने आने लगता है और हे भगवान या हे राम आदि वाक्य ही मुंह से निकलते है,कष्टों में ही व्यक्ति ज्योतिष और धर्म की तरफ़ भागता है,सुख भोगने वालों के लिये तो धर्म और ज्योतिष आदि केवल मखौल ही माने जाते है,वे इसे मनोरंजन का साधन समझते है। कुन्ती ने कहा था कि हे केशव मेरे सुखों से मुझे दूर कर दो,मुझे सांसरिक सुख नही चाहिये,मुझे तो केवल वही कारण चाहिये कि प्रतिपल हमे केशव का ही ध्यान आये। केतु जब त्रिक भावों में होता है तो समझना चाहिये कि भगवान ने धरती पर सुख भोगने के लिये नही लोगों की कर्जा दुश्मनी बीमारी अपमान मौत जानजोखिम पाप कर्म आदि से बचाने के लिये इस धरती पर भेजा है,जैसे छठे भाव में केतु जब होता है और ग्रहों के द्वारा शक्ति लेकर काम करता है तो वह मकान गाडियों और घरों के ऊपर झंडे लगवा देता है,मंत्री मुख्यमंत्री प्रधान मंत्री आदि के पद देता है,और शरीर के या संसार के जो भी दोष सामने होते है उन्हे शांत करने की पूरी कोशिश करता है। केतु जब दुर्घटना करवाता है तो सामने देखते हुये भी टक्कर होजाती है,उसका कारण है कि जिसे आहत होना है वह देखने के बाद भी अन्धा हो जाता है,या तो उस क्षणिक समय में उसे लगता है कि वह बहुत ही ज्ञानवान है या उसे लगता है कि वह सामने वाले को सीख दे रहा है।

प्रेम विवाह

                      

प्रेम विवाह करने वाले लडके व लडकियों को एक-दुसरे को समझने के अधिक अवसर प्राप्त होते है. इसके फलस्वरुप दोनों एक-दूसरे की रुचि, स्वभाव व पसन्द-नापसन्द को अधिक कुशलता से समझ पाते है. प्रेम विवाह करने वाले वर-वधू भावनाओ व स्नेह की प्रगाढ डोर से बंधे होते है. ऎसे में जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी दोनों का साथ बना रहता है.
पर कभी-कभी प्रेम विवाह करने वाले वर-वधू के विवाह के बाद की स्थिति इसके विपरीत होती है. इस स्थिति में दोनों का प्रेम विवाह करने का निर्णय शीघ्रता व बिना सोचे समझे हुए प्रतीत होता है. आईये देखे कि कुण्डली के कौन से योग प्रेम विवाह की संभावनाएं बनाते है. 

1. राहु के योग से प्रेम विवाह की संभावनाएं

    * 1)  जब राहु लग्न में हों परन्तु सप्तम भाव पर गुरु की दृ्ष्टि हों तो व्यक्ति का प्रेम विवाह होने की संभावनाए बनती है. राहु का संबन्ध विवाह भाव से होने पर व्यक्ति पारिवारिक परम्परा से हटकर विवाह करने का सोचता है. राहु को स्वभाव से संस्कृ्ति व लीक से हटकर कार्य करने की प्रवृ्ति  का माना जाता है.
  * 2.) जब जन्म कुण्डली में मंगल का शनि अथवा राहु से संबन्ध या युति हो रही हों तब भी प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है. कुण्डली के सभी ग्रहों में इन तीन ग्रहों को सबसे अधिक अशुभ व पापी ग्रह माना गया है. इन तीनों ग्रहों में से कोई भी ग्रह जब विवाह भाव, भावेश से संबन्ध बनाता है तो व्यक्ति के अपने परिवार की सहमति के विरुद्ध जाकर विवाह करने की संभावनाएं बनती है. 
  * 3.) जिस व्यक्ति की कुण्डली में सप्तमेश व शुक्र पर शनि या राहु की दृ्ष्टि हो, उसके प्रेम विवाह करने की सम्भावनाएं बनती है.
    * 4)  जब पंचम भाव के स्वामी की उच्च राशि में राहु या केतु स्थित हों तब भी व्यक्ति के प्रेम विवाह के योग बनते है.
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2. प्रेम विवाह के अन्य योग

  * 1)  जब किसी व्यक्ति कि कुण्ड्ली में मंगल अथवा चन्द्र पंचम भाव के स्वामी के साथ, पंचम भाव में ही स्थित हों तब अथवा सप्तम भाव के स्वामी के साथ सप्तम भाव में ही हों तब भी प्रेम विवाह के योग बनते है.
  * 2)  इसके अलावा जब शुक्र लग्न से पंचम अथवा नवम अथवा चन्द लग्न से पंचम भाव में स्थित होंने पर प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है.
  * 3)  प्रेम विवाह के योगों में जब पंचम भाव में मंगल हों तथा पंचमेश व एकादशेश का राशि परिवतन अथवा दोनों कुण्डली के किसी भी एक भाव में एक साथ स्थित हों उस स्थिति में प्रेम विवाह होने के योग बनते है. 
  * 4)  अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में पंचम व सप्तम भाव के स्वामी अथवा सप्तम व नवम भाव के स्वामी एक-दूसरे के साथ स्थित हों उस स्थिति में प्रेम विवाह कि संभावनाएं बनती है.
  * 5)  जब सप्तम भाव में शनि व केतु की स्थिति हों तो व्यक्ति का प्रेम विवाह हो सकता है.
  * 6)  कुण्डली में लग्न व पंचम भाव के स्वामी एक साथ स्थित हों या फिर लग्न व नवम भाव के स्वामी एक साथ बैठे हों, अथवा एक-दूसरे को देख रहे हों इस स्थिति में व्यक्ति के प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है. 
  * 7) जब किसी व्यक्ति की कुण्डली में चन्द्र व सप्तम भाव के स्वामी एक -दूसरे से दृ्ष्टि संबन्ध बना रहे हों तब भी प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है.
  * 8) जब सप्तम भाव का स्वामी सप्तम भाव में ही स्थित हों तब विवाह का भाव बली होता है. तथा व्यक्ति प्रेम विवाह कर सकता है.
  * 9) पंचम व सप्तम भाव के स्वामियों का आपस में युति, स्थिति अथवा दृ्ष्टि संबन्ध हो या दोनों में राशि परिवर्तन हो रहा हों तब भी प्रेम विवाह के योग बनते है.
  * 10) जब सप्तमेश की दृ्ष्टि, युति, स्थिति शुक्र के साथ द्वादश भाव में हों तो, प्रेम विवाह होता है.
  * 11) द्वादश भाव में लग्नेश, सप्तमेश कि युति हों व भाग्येश इन से दृ्ष्टि संबन्ध बना रहा हो, तो प्रेम विवाह की संभावनाएं बनती है.
  * 12) जब जन्म कुण्डली में शनि किसी अशुभ भाव का स्वामी होकर वह मंगल, सप्तम भाव व सप्तमेश से संबन्ध बनाते है. तो प्रेम विवाह हो सकता है.

सू्र्य को बनाएं बली

                   
सूर्य अगर मंदा हो तो जीवन में रोजी रोजगार के क्षेत्र में कठिनाईयों का सामना करना होता है. राजकीय पक्ष से सहायता नहीं मिल पाती है. इस स्थिति में जिनकी कुण्डली में सूर्य मंदा हो तो सूर्य को जगाना चाहिए।

प्रथम भाव में सूर्य : -  ग्रह को जगाने का अर्थ है उसे शुभ फलदायी बनाना. अगर सूर्य मंदा हो तो उसे शुभ फलदायी बनाने के लिए 24 वर्ष के बाद शादी करनी चाहिए. व्यक्ति को अपने मान मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए किसी के आगे व्यर्थ नहीं झुकना चाहिए. इस खाने में स्थित सूर्य के मन्दे फल से बचाव के लिए व्यवहार एवं चरित्र का भी ख्याल रखना चाहिए.

द्वितीय भाव में सूर्य :-  सूर्य द्वितीय भाव में मंदा हो तो मंदे प्रभाव से बचाव हेतु कुटुम्बीजनों से आशीर्वाद लेना चाहिए. व्यक्ति को दूसरे का धन नहीं लेना चाहिए. अगर उपहार में भी धन प्राप्त हो तो उससे भी परहेज रखना चाहिए. इस भाव में सूर्य वाले व्यक्ति के लिए लालच हानिकारक होता है.
 

तृतीय भाव में सूर्य :- कुण्डली मे सूर्य तीसरे घर में अशुभ होकर बैठा हो तो चारित्रिक दुर्बलताओं से स्वयं को बचाकर रखना चाहिए. रविवार के दिन तांबे का पात्र मन्दिर में दान करने से सूर्य का मन्दा फल दूर होता है. रविवार के दिन चांदी का चौकोर टुकड़ा धारण करने से भी सूर्य नेक होता है.

चतुर्थ भाव में सूर्य :-  सूर्य अगर चौथे खाने में अशुभ होकर बैठा हो तो व्यक्ति को अपना मन शांत रखना चाहिए. कलह और विवाद में उलझना हानिप्रद होता है. बुजुर्गों का अशीर्वाद लेना चाहिए. किसी भी व्यक्ति को कष्ट अथवा नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए अन्यथा सूर्य का फल और भी मंदा हो जाता है. लोहे और मशीनरी के काम में लाभ की संभावना नहीं रहती, बल्कि व्यक्ति को नुकसान होता है अत: इन वस्तुओं के कारोबार से बचना चाहिए.

पांचवे भाव में सूर्य :-  पांचवें भाव में मंदे सूर्य को नेक बनाने के लिए घर में पूर्व और उत्तर दिशा में रोशनदान रखना चाहिए. सूर्य का शुभ फल प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को दसरों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए. जिद्द और हठी होना इस भाव में मंदे सूर्य को और भी मंदा करता है अत: इनसे बचना चाहिए.
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छठे भाव में सूर्य :-  छठे भाव में सूर्य मंदा होने पर सूर्य के मंदे प्रभाव को दूर करने के लिए रात्रि के समय दूध डालकर अग्नि को बुझाना चाहिए.बन्दर को गुड़ खिलाने से भी छठे भाव में सूर्य का मंदा फल प्रभावी नहीं होता है. घर में नदी का जल रखने से सूर्य का शुभ फल प्राप्त होता है. चीटियों को चीनी डालने से सूर्य का मंदा प्रभाव नहीं प्राप्त होता है.

सातवें भाव में सूर्य :-  सूर्य सातवें घर में मंदा होकर बैठा हो तो चांदी का चौकोर टुकड़ा ज़मीन में दबाने से मंदा फल दूर होता है.इस भाव में मंदे सूर्य को नेक बनाने के लिए आदित्य हृदयस्तोत्र एवं हरिवंश पुरण का पाठा करना चाहिए. सींग वाली गाय की सेवा करनी चाहिए. बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए.

आठवें भाव में सूर्य :-  अगर सूर्य आठवें घर में मदा होकर अशुभ फल दे रहा हो तो इसे नेक बनाने के लिए बरसात का पानी जमा करके घर के पूर्व दिशा में रखना चाहिए. किसी कार्य को शुरू करने से पहले मीठी वस्तुओं का सेवन करना चाहिए. किसी भी काम में असामाजिक और अनैतिक आचरण वाले लोगों की सहायता नहीं लेनी चाहिए.

नवम भाव में सूर्य :-  सूर्य अगर नवम खाने में मंदा हो तो मनोकामना पूर्ति के लिए भूमि पर सोना चाहिए. सूर्य के मंदे प्रभाव से बचाव हेतु घर में टूटे फूटे बर्तनो को नहीं रखना चाहिए. (घर के बड़े और आदरणीय व्यक्तियों से आशीर्वाद लेना चाहिए. अपने स्वभाव को सामान्य रखना चाहिए न तो अधिक क्रोध करना चाहिए और न ही अधिक शांत होना चाहिए.

दशम भाव में सूर्य :-  दसवें घर में बैठा सूर्य अगर मंदा फल दे रहा हो तो सूर्य का शुभ फल प्राप्त करने के लिए 43 दिनो तक तांबे का सिक्का नदी मे प्रवाहित करना चाहिए. आदित्य हृदय स्तोत्र और हरिवंश पुराण का पाठ शुभ फलदायी होता है. सूर्य को नियमित जल देने से भी इस भाव मे स्थित सूर्य का मंदा फल दूर होता है.

एकादश भाव में सूर्य :-  सूर्य एकादश भाव में अशुभ हो तो लाल किताब के अनुसार इसे नेक बनाने के लिए व्यक्ति को मांस मदिरा के सेवन से परहेज रखना चाहिए. कल पूर्जे वाले सामान, मशीन आदि खराब हो गए हों तो उसे ठीक करा लेना चाहिए अन्यथा घर में नहीं रखना चाहिए इससे भी सूर्य मंदा फल देता है. सूर्य मंदा होने पर घर में काला पत्थर रखना भी अशुभ फल देता है.

द्वादश भाव में सूर्य :-  खाना नम्बर 12 में सूर्य मंदा हो तो नेक प्रभाव पाने के लिए नदी में कच्चा जल प्रवाहित करना चाहिए. मंदे सूर्य से नेक फल पाना हो तो 43 दिनों तक नदी में गुड़ प्रवाहित करना चाहिए. 24 वर्ष के बाद विवाह करना से एवं तीन माला गायत्री मंत्र का जप करना भी मंदे सूर्य के मंदे फल को दूर करने में सहायक होता है.

Friday 20 April 2018

कृष्ण के विभिन्न कल्याणकारी मंत्र

                    

मूल मंत्र :
कृं कृष्णाय नमः
यह भगवान कृष्ण का मूलमंत्र हैं। इस मूल मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को जीवन में सभी बाधाओं एवं कष्टों से मुक्ति मिलती हैं एवं सुख कि प्राप्ति होती हैं।


सप्तदशाक्षर मंत्र:
ॐ श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा
यह भगवान कृष्ण का सत्तरा अक्षर का हैं। इस मूल मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को मंत्र सिद्ध हो जाने के पश्चयात उसे जीवन में सबकुछ प्राप्त होता हैं।


सप्ताक्षर मंत्र:
गोवल्लभाय स्वाहा
इस सात अक्षरों वाले मंत्र के नियमित जाप करने से जीवन में सभी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।


अष्टाक्षर मंत्र:
गोकुल नाथाय नमः
इस आठ अक्षरों वाले मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि सभी इच्छाएँ एवं अभिलाषाए पूर्ण होती हैं।


दशाक्षर मंत्र:
क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलांगाय नमः
इस दशाक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से संपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति होती हैं।


द्वादशाक्षर मंत्र:
ॐ नमो भगवते श्रीगोविन्दाय
इस कृष्ण द्वादशाक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से इष्ट सिद्धी की प्राप्ति होती हैं।


तेईस अक्षर मंत्र:
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्री
यह तेईस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि सभी बाधाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।


अट्ठाईस अक्षर मंत्र:
ॐ नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे गोपीजनवल्लभाय स्वाहा
यह अट्ठाईस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति को समस्त अभिष्ट वस्तुओं कि प्राप्ति होती हैं।


उन्तीस अक्षर मंत्र:
लीलादंड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन विष्णो स्वाहा।
यह उन्तीस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।



बत्तीस अक्षर मंत्र:
नन्दपुत्राय श्यामलांगाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।
यह बत्तीस अक्षर मंत्र के नियमित जाप करने से व्यक्ति कि समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।


तैंतीस अक्षर मंत्र:
ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे॥
यह तैंतीस अक्षर के नियमित जाप करने से समस्त प्रकार की विद्याएं निःसंदेह प्राप्त होती हैं। यह श्रीकृष्ण के तीव्र प्रभावशाली मंत्र हैं। इन मंत्रों के नियमित जाप से व्यक्ति के जीवन में सुख, समृद्धि एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं।
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बालारिष्ट योग

                                              
जीवन मे आयु का विचार गुरु से किया जाता है और मौत का विचार राहु से किया जाता है,कुंडली में गोचर का गुरु जब जब जन्म के राहु से युति लेता है,या राहु जन्म के गुरु से युति लेता है,अथवा गोचर का राहु गोचर के गुरु से युति लेता है,अथवा गुरु और राहु का षडाष्टक योग बनता है,अथवा गुरु के साथी ग्रह राहु से अपनी मित्रता कर रहे हो,अथवा राहु के आसपास अपनी युति मिला रहे हो,तो बालारिष्ट-योग की उत्पत्ति हो जाती है,इस योग में जातक की मौत निश्चित होती है,लेकिन मौत भी आठ प्रकार की होती है,जिसके अन्दर तीन मौत भयानक मानी जाती है।
शरीर की मौत जो बारह  भावों के अनुसार उनके रिस्तेदारों के सहित मानी जाता है,धन की हानि जो बारह भावों के कारकों के द्वारा जानी जाती है,मन की हानि जो बारह भावों के सम्बन्धियों से बिगाडखाता या दुश्मनी के रूप में मानी जाती है।

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गुरु जीव का कारक है  :-
गुरु जो जीव का कारक है,गुरु जो प्रकृति के द्वारा दी गयी सांसों का कारक है,गुरु जो जीवन के हर भाव का प्रोग्रेस का कारक है,गुरु अगर मौत का भी मालिक है तो वह मौत भी किसी न किसी प्रकार के फ़ायदे के लिये ही देता है,गुरु अगर दुशमनी का मालिक है तो वह दुश्मनी भी किसी बहुत बडे फ़ायदे के लिये मानी जाती है,गुरु अगर खर्चे के भाव का मालिक है तो खर्चा भी किसी न किसी अच्छे कारण के लिये ही करवायेगा। गुरु की युति अगर क्रूर ग्रहों से भी हो जाती है तो गुरु के प्रभाव में क्रूर ग्रह भी क्रूरता तो करते है लेकिन व्यक्ति या समाज की भलाई के करते है,गुरु के साथ पापी ग्रह मिल जाते है तो वे पाप भी भलाई के लिये ही करते है,मतलब गुरु का साथ जिस ग्रह के साथ मिल जाता है उसी की "पौ बारह हो जाती है" इस कहावत का रूप भी गुरु के अनुसार ही माना जाता है मतलब जब गुरु किसी भी भाव में प्रवेश करता है तो जीत का ही संकेत देता है,जब वह मौत के भाव में प्रवेश करता है तो जो भी जैसी भी भावानुसार मौत होती है वह आगे के जीवन के लिये या आगे की सन्तान की भलाई के लिये ही होती है। गुरु हवा कारक है उसे ठोस रूप में नही प्राप्त किया जा सकता है गुरु सांस का कारक है सांस को कभी बांध कर नही रखा जा सकता है। गुरु की राहु के साथ नही निभती है,राहु के साथ मिलकर गुरु चांडाल योग बन जाता है,एक गुरु की हैसियत चांडाल की हो जाती है वह अपने ज्ञान को मौज मस्ती के साधनो में खर्च करना शुरु कर देता है,उसे बचाने से अधिक मारने के अन्दर मजा आने लगता है,वह अपने पराक्रम को धर्म और समाज की भलाई के प्रति न सोचकर केवल बुराई और बरबादी के लिये सोचने का काम करने लगता है,गुरु जो पीले रंग का मालिक है अपने अन्दर राहु रूपी भेडिया को छुपाकर धर्म के नाम पर यौन शोषण,धन का शोषण,जीवन का शोषण करना चालू कर देता है। गुरु जो ज्ञान का कारक है वह उसे मारण मोहन वशीकरण उच्चाटन के रूप में प्रयोग करना शुरु कर देता है,वह पीले कपडों में बलि स्थानों मे जाकर जीव की बलि देना शुरु कर देता है,जब कोई भी ज्ञान मानव जीवन या जीव के अहित में प्रयोग किया जायेगा तो वह चांडाल की श्रेणी में चला जायेगा,और यही गुरु चांडाल योग की परिभाषा कही जायेगी। इसी बात को आज के युग में सूक्षमता से देखें तो जो व्यक्ति आतंकवादी गतिविधियों में लगे है,जो अकारण ही जीव हत्या और मानव के वध के उपाय सोचते है,जो खून बहाने में अपनी अतीव इच्छा जाहिर करते है,जिनके पास वैदिक ज्ञान तो है लेकिन उस ज्ञान के द्वारा वे बजाय किसी की सहायता करने के उस ज्ञान की एवज में धन को प्राप्त करते है,उसे महंगे होटलों में जाकर बीफ़ और मदिरा के साथ उपभोग करते है,उनके वैदिक ज्ञान का प्रयोग गुरु चांडाल की श्रेणी में ही माना जायेगा,"अपना काम बनता,भाड में जाये जनता",का प्रयोग केवल धर्म गुरुओं के प्रति ही नही माना जा सकता है,वह किसी प्रकार के प्राप्त किये गये ज्ञान के प्रति भी माना जा सकता है,जैसे राजनीति के अन्दर असीम ज्ञान को हासिल कर लिया और उस ज्ञान का प्रयोग जनहित में लगाना था लेकिन राहु के द्वारा दिमाग में असर आजाने से वे उसे केवल अपने अहम के लिये खर्च करने लगे,राहु जो सभी तरह से विराट रूप का मालिक है खुद को विराट रूप में दिखाने की कोशिश करने लगे,राहु जो शुक्र के साथ मिलकर चमक दमक का मालिक बना देता है,साज सज्जा से युक्त व्यक्तियों की श्रेणी में लेजाकर खडा कर देता है के रूप में अपने को प्रदर्शित करने में लग गये,लेकिन गुरु का अपना राज्य है वह सांसों के रूप में व्यक्ति के जीव के अन्दर अपना निवास बनाकर बैठा है,उसकी जब इच्छा होगी वह अपनी सांसों को समेट कर चला जायेगा,फ़िर इस देह को राहु ही अपनी रसायनिक क्रिया के द्वारा सडायेगा,या ईंधन बनकर जलायेगा,या विस्फ़ोट में उडायेगा,अथवा आसमानी यात्रा में चिथडे करके उडायेगा,आदि कारणों राहु का कारण भी सामने अवश्य आयेगा।

जीव के साथ राहु का समागम : -
राहु वास्तव में छाया ग्रह है,यह अपने ऊपर कोई आक्षेप नही लेता है,यह एक बिन्दु की तरह से है जो जीव के उसी के रूप में आगे पीछे चलता है,कभी जीव का साथ नही छोडता है,इसके अन्दर एक अजीब सी शक्ति होती है,जब जीव का दिमाग इसके अन्दर फ़ंस जाता है तो वह जीव के साथ जो नही होना होता है वह करवा देता है। यह तीन मिनट की गति से कुंडली में प्रतिदिन की औसत चाल चलता है,इसका भरोसा नही होता है,कि सुबह यह क्या कर रहा है दोपहर को क्या करेगा और शाम होते ही यह क्या दिखाना शुरु कर देगा। राहु को ही कालपुरुष की संज्ञा दी गयी है,वह विराट रूप में सभी के सामने है उसकी सीमा अनन्त है,उसकी दूरी को कोई नाप नही सका है,केवल उसकी संज्ञा नीले रंग के रूप में अनन्त आकाश की ऊंचाइयों में देखी जा सकती है,यह केतु से हमशा विरोध में रहता है,और उसकी उल्टी दिशा का बोधक होता है,जो केतु सहायता के रूप में सामने आता है यह उसी का बल हरण करने के बाद उसकी शक्ति और बोध दोनो को बेकार करने के लिये अपनी योग्यता का प्रमाण देने से नही चूकता है। सूर्य के साथ अपनी युति बनाते ही वह पिता या पुत्र को आलसी बना देता है,जो कार्य जीवन के प्रति उन्नति देने वाले होते है वे आलस की बजह से पूरे नही हो पाते है,वह आंखो को भ्रम में डाल देता है होता कुछ है और वह दिखाना कुछ शुरु कर देता है। जातक के साथ जो भी कार्य चल रहा होता है उसके अन्दर असावधानी पैदा करने के बाद उस कार्य को बेकार करने के लिये अपनी शक्ति को देता है,पलक झपकते ही आंख की किरकिरी बनकर सडक में मिला देता है,सूर्य के साथ जब भी मिलता है तो केवल जो भी सुनने को मिलता है वह अशुभ ही सुनने को मिलता है,जातक के स्वास्थ्य में खराबी पैदा करने के लिये राहु और सूर्य की युति मुख्य मानी जाती है। राहु से अष्टम में जब भी सूर्य का आना होता है तो या तो बुखार परेशान करता है,अथवा किसी सूर्य से सम्बन्धित कारक का खात्मा सुनने को मिलता है।

बालारिष्ट  : -
गुरु और राहु दोनो मिलकर जहरीली गैस जैसा उपाय करते है,घर परिवार समाज वातावरण भोजन पानी आदि जीवन के सभी कारक इतना गलत प्रभाव देना चालू कर देते है कि व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है,अगर व्यक्ति घर वालों के द्वारा परेशान किया जा रहा है तो पडौस के लोग भी उसे परेशान कर देते है,वह पडौस से भी दूर जाना चाहता है तो उसे कालोनी या गांव के लोग परेशान करना चालू कर देते है,जब कि उसकी कोई गल्ती नही होती है केवल वह अपने अन्दर के हाव भाव इस तरह से प्रदर्शित करने लगता है जैसे कि उसके पास कोई बहुत बडी आफ़त आने वाली हो और वह हर बात में डर रहा हो। राहु जो विराट है वह जीव को अपने में समालेने के लिये आसपास अपना माहौल फ़ैला लेता है,और जीव किसी भी तरह से उसके चंगुल में आ ही जाता है,बहुत ही भाग्य या पौरुषता होती है तो जीव बच पाता है,अन्यथा वह राहु का ग्रास तो बन ही जाता है।