Sunday 16 June 2019

नवम भाव का महत्व व विशेषता

नवम भाव भाग्य, धर्म व यश का भाव होने के कारण किसी भी व्यक्ति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है| भाग्य पूर्व संचित कर्मों का परिणाम है| नवम भाव त्रिकोण स्थान कहलाता है| यह पंचम भाव से अधिक बलशाली होता है, अतः नवमेश, पंचमेश की अपेक्षा अधिक बलशाली माना जाता है| त्रिकोण भाव होने के साथ-साथ यह लक्ष्मी स्थान भी है इसलिए यह भाव अत्यंत शुभ है| इसका भावेश होने पर कोई भी ग्रह शुभफलदायी हो जाता है| फारसी में इस भाव को वेशखाने, नसीबखाने, बख्तखाने, परतमखाने कहते हैं| नवम स्थान पंचम भाव(पूर्व पुण्य) से पंचम है अतः यह भाव भी जातक के पूर्व पुण्यों से संबंधित है| नवम भाव गुरु स्थान भी कहलाता है क्योंकि यह गुरु का सूचक है| मनुष्य के जीवन में प्रथम गुरु उसका पिता होता है यही कारण है कि पिता का विचार भी नवम भाव से किया जाता है| श्रेष्ठ गुरु की प्राप्ति से व्यक्ति का भाग्योदय होता है इसलिए नवम भाव भाग्य स्थान भी कहलाता है|


यदि कोई शुभ ग्रह केन्द्रेश होने के साथ-साथ नवमेश भी हो, तो उसका केन्द्राधिपत्य दोष नष्ट हो जाता है| इसी प्रकार कोई ग्रह त्रिकेश या त्रिषड्येश होने के साथ-साथ नवमेश भी हो, तो उसकी अशुभता में कमी आ जाती है| नवम भाव से भाग्य, धर्म, यश, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, गुरु, पिता, तपस्या, पुण्य, दान, भाग्योदय, उच्च शिक्षा, सदाचार, देवपूजा, सन्यास, देव मंदिर निर्माण, लंबी दूरी की यात्राएं, अंतर्ज्ञान, राजयोग, नितम्ब व जाँघों का विचार किया जाता है| सप्तम भाव(जीवनसाथी) से तृतीय(भ्राता) होने के कारण नवम स्थान साले, साली व देवर से संबंधित है| इस भाव के कारक ग्रह सूर्य तथा गुरु हैं|

नवम भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-

धार्मिक जीवन- जब लग्न या लग्नेश के साथ नवम भाव अथवा नवमेश का निकट संबंध हो तो मनुष्य के भाग्य और धर्म दोनों का उत्थान होता है| यदि चन्द्र तथा सूर्य से नवम भाव के स्वामी का संबंध चन्द्र व सूर्य अधिष्ठित राशियों के स्वामी से हो जाए तो मनुष्य का जीवन पूर्णतः धर्ममय हो जाता है| चाहे वह गृहस्थी हो या सन्यासी, ऐसा व्यक्ति ज्ञानियों में श्रेष्ठ जीवन वाला और मुक्ति प्राप्त करने वाला महात्मा होता है|
राज्यकृपा- नवम भाव को राज्यकृपा का भाव भी कहते हैं| यदि इस भाव का स्वामी राजकीय ग्रह सूर्य, चन्द्र अथवा गुरु हो और बलवान भी हो तो मनुष्य को राज्य(सरकार आदि) की ओर से विशेष कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह व्यक्ति राज्य अधिकारी, उच्च पद पर आसीन सम्मानीय व्यक्ति होता है| 
प्रभुकृपा- प्रभुकृपा का स्थान भी नवम भाव है| क्योंकि यह धर्म स्थान है और प्रभुकृपा के पात्र पुण्य कमाने वाले धार्मिक व्यक्ति ही हुआ करते हैं| इस भाव का स्वामी बलवान हो तथा शुभ ग्रहों से युक्त अथवा द्रष्ट होकर जिस शुभ भाव में स्थित हो जाता है, मनुष्य को अचानक प्रभुकृपा व दैवयोग से उसी भाव द्वारा निर्दिष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है| जैसे नवमेश बलवान होकर दशम भाव में हो तो राज्य प्राप्ति, चतुर्थ भाव में हो तो वाहन व घर की प्राप्ति, द्वितीय भाव में हो तो अचानक धन की प्राप्ति होती है|
राजयोग- पराशर ऋषि के अनुसार नवम भाव को कुंडली के सबसे शुभ भावों में से एक माना गया है| इस भाव के स्वामी का संबंध यदि दशम भाव व दशमेश के साथ हो तो मनुष्य अतीव भाग्यशाली, धनी, मानी तथा राजयोग भोगने वाला होता है| इसका कारण यह है कि दशम भाव केंद्र भावों में से सबसे प्रमुख तथा शक्तिशाली केंद्र है| यह एक विष्णु स्थान भी है| इसी प्रकार नवम भाव त्रिकोण भावों में सबसे प्रमुख व शक्तिशाली त्रिकोण है तथा यह एक लक्ष्मी स्थान है| क्योंकि भगवान विष्णु को देवी लक्ष्मी अत्यंत प्रिय है इसलिए नवम भाव व नवमेश का संबंध दशम भाव तथा दशमेश से होना सर्वाधिक शुभ माना जाता है| इस प्रकार नवम व दशम भाव का परस्पर संबंध धर्मकर्माधिपति राजयोग को जन्म देता है|
कालपुरुष का नितम्ब व जांघ- नवम भाव का संबंध कालपुरुष के नितम्ब व जांघ से है| यदि नवम भाव, नवमेश, धनु राशि तथा गुरु पर पाप ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो तो मनुष्य के नितम्ब व जांघ में कष्ट व रोग होता है|
संतान प्राप्ति- नवम भाव पंचम स्थान(संतान भाव) से पंचम है अतः इसका संबंध भी संतान तथा संतानोत्पत्ति से है| यदि नवम भाव, नवमेश व गुरु बलवान हो तो मनुष्य को संतान की प्राप्ति अवश्य होती है| दूसरे शब्दों में कहें तो यह भाव संतान के मामले में पंचम भाव का सहायक भाव है|
भाग्य- नवम स्थान, पंचम भाव(पूर्व पुण्य) से पंचम है| पूर्व पुण्यों का विचार पंचम भाव से किया जाता है परंतु मनुष्य उन पूर्व पुण्यों को अच्छे रूप में भोगेगा अथवा बुरे रूप में इसका विचार नवम भाव से किया जाता है क्योंकि पूर्व जन्म के अच्छे या बुरे पूर्व पुण्यों का लेखा-जोखा ही भाग्य है और भाग्य का विचार नवम भाव से किया जाता है|
गुरु- जीवन को सफल बनाने हेतु आवश्यक मार्ग दर्शक गुरु है| नवम भाव गुरु स्थान है क्योंकि उसी के मार्गदर्शन से व्यक्ति सत्कर्मों द्वारा सतमार्ग पर चलकर अपने जीवन को सफल बना सकता है|
पिता- मनुष्य का पिता ही उसके आरंभिक जीवन में उसका मार्गदर्शन करता है| इसलिए पिता ही व्यक्ति के जीवन का वास्तविक एवं प्रथम गुरु है| यही कारण है कि नवम भाव पिता से संबंधित है|

देवालय निर्माण- क्योंकि नवम भाव धर्म से संबंधित है इसलिए यह देवालय व मंदिरों से भी जुड़ा हुआ है| गुरु मंदिर का कारक ग्रह है| यदि नवमेश लग्न व लग्नेश से संबंधित हो और गुरु ग्रह भी इस योग से संबंध बनाए तो व्यक्ति देवालयों व मंदिरों का निर्माण करवाता है|
दीर्घ यात्राएं-नवम भाव का संबंध लंबी दूरी की यात्राओं से है| तृतीय भाव छोटी यात्राओं से जुड़ा हुआ है| नवम भाव तृतीय भाव का ठीक विपरीत भाव है यानी ये तृतीय भाव से सप्तम है इसलिए उसका पूरक भाव है और व्यक्ति द्वारा की जाने वाली लंबी यात्राओं का सूचक है
धार्मिक व विदेश यात्रा- क्योंकि नवम भाव का संबंध लंबी दूरी की यात्राओं से है इसलिए यह विदेश यात्राओं का प्रतीक भी है| यदि तृतीय व द्वादश भाव का संबंध नवम स्थान से हो तो व्यक्ति अपने निवास से दूर यात्राएं कर सकता है| नवम स्थान धर्म का सूचक भी है अतः यह धार्मिक यात्राओं को भी दर्शाता है| 
नवम भाव किस्मत का है | यहाँ बैठे ग्रह आपके भाग्य को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं | यदि यहाँ कोई भी ग्रह न हो तो भी यहाँ स्थित राशी के स्वामी को देखा जाता है | नवम भाव भाग्य का और दशम भाव कर्म का है | जब इन दोनों स्थानों के ग्रह आपस में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखते हैं तब राजयोग की उत्पत्ति होती है | राजयोग में साधारण स्थिति में व्यक्ति सरकारी नौकरी प्राप्त करता है | नवम और दशम भाव का आपस में जितना गहरा सम्बन्ध होगा उतना ही अधिक बड़ा राज व्यक्ति भोगेगा | मंत्री, राजनेता, अध्यक्ष आदि राजनीतिक व्यक्तियों की कुंडली में यह योग होना स्वाभाविक ही है |
नवम भाव और दुर्भाग्य :- यदि नवम भाव का स्वामी ग्रह सूर्य के साथ १० डिग्री के बीच में हो तो निस्संदेह व्यक्ति भाग्यहीन होता है | यदि नवमेश नीच राशी में हो तो व्यक्ति चाहे करोडपति क्यों न हो एक न एक दिन उसे सड़क पर आना पड़ ही जाता है | यदि नवमेश १२वे भाव में हो तो व्यक्ति का भाग्य अपने देश में नहीं चमकता | विदेश में जाकर वहां कष्ट उठाकर जीना पड़ता है | उसकी यही मेहनत उसके भाग्य का निर्माण करती है | नवम भाव का स्वामी बलवान हो या निर्बल, उसकी दशा अन्तर्दशा में व्यक्ति को अवसर खूब मिलते हैं | यदि नवमेश अच्छी स्थिति में होगा तो व्यक्ति अवसर का लाभ उठा पायेगा | अन्यथा अवसर पर अवसर ऐसे ही निकल जाते हैं जैसे मुट्ठी में से रेत | पाप ग्रह इस स्थान में बैठकर भाग्य की हानि करते हैं और शुभ ग्रह मुसीबतों से बचाते हैं | इस स्थान पर बुध, शुक्र, चन्द्र और गुरु का होना व्यक्ति के उज्ज्वल भविष्य को दर्शाता है | मंगल, शनि, राहू और केतु इस स्थान में बैठकर व्यक्ति को दुर्भाग्य के अवसर प्रदान करते हैं | सूर्य का यहाँ होना निस्संदेह एक बहुत बड़ा राजयोग है | सूर्य स्वयं ग्रहों का राजा है और जब राजा ही भाग्य स्थान में बैठ जाए तो राजयोग स्पष्ट हो जाता है | कोई भी ग्रह चाहे वह पाप ग्रह मंगल, शनि ही क्यों न हों, इस स्थान में यदि अपनी राशी में हो तो व्यक्ति बहुत भाग्यशाली हो जाता है | पाप ग्रहों से अंतर केवल इतना पड़ता है कि उसके अशुभ कर्मों में भाग्य उसका साथ देता है

सूर्य - सूर्य पिता का कारक होता है, वहीं सूर्य जातक को मिलने वाली तरक्की, उसके प्रभाव क्षेत्र का कारक होता है। ऐसे में सूर्य के साथ यदि राहु जैसा पाप ग्रह आ जाए तो यह ग्रहण योग बन जाता है अर्थात सूर्य की दीप्ति पर राहु की छाया पड़ जाती है। ऐसे में जातक के पिता को मृत्युतुल्य कष्ट होता है, जातक के भी भाग्योदय में बाधा आती है, उसे कार्यक्षेत्र में विविध संकटों का सामना करना पड़ता है। जब सूर्य और राहु का योग नवम भाव में होता है, तो इसे पितृदोष कहा जाता है। सूर्य और राहु की युति जिस भाव में भी हो, उस भाव के फलों को नष्ट ही करती है और जातक की उन्नाति में सतत बाधा डालती है। विशेषकर यदि चौथे, पाँचवें, दसवें, पहले भाव में हो तो जातक का सारा जीवन संघर्षमय रहता है। सूर्य प्रगति, प्रसिद्धि का कारक है और राहु-केतु की छाया प्रगति को रोक देती है। अतः यह युति किसी भी भाव में हो, मुश्किलें ही पैदा करती है।
 प्रत्येक अमावस्या को एक ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा-वस्त्र भेंट करने से पितृदोष कम होता है।

* प्रत्येक अमावस्या को कंडे की धूनी लगाकर उसमें खीर का भोग लगाकर दक्षिण दिशा में पितरों का आह्वान करने व उनसे अपने कर्मों के लिए क्षमायाचना करने से भी लाभ मिलता है।

* पिता का आदर करने, उनके चरण स्पर्श करने, पितातुल्य सभी मनुष्यों को आदर देने से सूर्य मजबूत होता है।
* सूर्योदय के समय किसी आसन पर खड़े होकर सूर्य को निहारने, उससे शक्ति देने की प्रार्थना करने और गायत्री मंत्र का जाप करने से भी सूर्य मजबूत होता है।

* सूर्य को मजबूत करने के लिए माणिक भी पहना जाता है, मगर यह कुंडली में सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है।
यह तय है कि पितृदोष होने से जातक को श्रम अधिक करना पड़ता है, फल कम व देर से मिलता है अतः इस हेतु मानसिक तैयारी करना व परिश्रम की आदत डालना श्रेयस्कर रहता है।