Sunday 27 January 2019

पंचम भाव का महत्व और विशेषताएँ


पंचम भाव का परिचय- पंचम भाव एक त्रिकोण भाव हैं। कुंडली के तीन त्रिकोण स्थान, अर्थात प्रथम, पंचम व नवम स्थान में से पंचम स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। यह भाव संचित पूर्व-पुण्य, अर्थात पूर्व जन्म के कर्मों के संग्रह को दर्शाता है, इसलिए इसका एक नाम पूर्व पुण्य भाव भी हैं। व्यक्ति के पूर्वजन्म के कर्म उसके वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं, इसलिए पंचम भाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाव हैं।

व्यक्ति की संतान संख्या का अनुमान भी पंचम भाव से लगाया जा सकता हैं। अतः यह पुत्र भाव अथवा संतान का स्थान भी है, पंचम भाव यह भी दर्शाता है कि मनुष्य की आत्मा अध्यात्मिक क्षेत्र में कितनी उन्नत हैं। केवल यही नही, यह इसके अतिरिक्त यह भी बताता है कि व्यक्ति मंत्र ज्ञान से अपना अध्यात्मिक विकास करने में कितना समर्थ हैं। अतः इसे मंत्र भाव कहना भी सर्वथा उपयुक्त हैं। इस भाव के विचारणीय विषयों में ज्ञानार्जन व संतान दोनों ही मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। शास्त्रों के अनुसार बिना पुत्र के मनुष्य की सद्गति नही होती। वर्तमान युग में यही बात ज्ञान के विषय में भी कही जा सकती हैं। यदि यह कहा जाए कि बिना ज्ञान के मनुष्य की दुर्गति होती है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, इसलिए एक व्यक्ति अपने जीवन में कितना ज्ञानार्जन कर सकता है, यह भी इस भाव से पता चलता हैं। पंचम स्थान से संतान, बुद्धि, स्मरण शक्ति, विश्लेषण क्षमता, ज्ञानार्जन करने व किसी भी विषय को समझने की क्षमता, इष्टदेव की आराधना, प्रेम विवाह, राजयोग, मंत्र-तंत्र में रूचि व सफलता, माता का धन, सट्टे व लॉटरी से आकस्मिक धन लाभ, प्रियतम या प्रियतमा, उदर, पाचन संस्थान, यकृत, गर्भाशय आदि का विचार किया जाता हैं। लग्न, पंचम व नवम भाव एक-दूसरे के साथ त्रिकोण बनाते हैं। त्रिकोण के रूप में पंचम स्थान एक शुभ भाव हैं।| इस भाव का स्वामी होने पर भावेश के रूप में प्रत्येक ग्रह का शुभ फल बढ़ जाता हैं। इस भाव का कारक ग्रह गुरु हैं।
 
इस भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
ज्ञान- व्यक्ति कितना बुद्धिमान है एवं उसकी ग्राह्य शक्ति कितनी प्रखर है, इसका बोध इस स्थान पर पड़ने वाले प्रभाव से निर्धारित हो सकता हैं। यदि पंचम भाव, पंचमेश व बुध पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यक्ति अत्यंत ज्ञानी व कुशाग्र बुद्धि का हो सकता हैं। इसके विपरीत इन घटकों पर पाप प्रभाव व्यक्ति को जड़ मति बनाकर मनोरोग दे सकता हैं।
संतान- इस भाव से यह ज्ञात हो सकता है कि मनुष्य को संतान की प्राप्ति होगी अथवा नहीं। संतान कब होगी, कितनी होगी, उनका लिंग क्या होगा आदि बातों का पता भी इस भाव का विश्लेषण करने से पता चल सकता है।  इस भाव पर शुभ प्रभाव संतान के स्वास्थ्य व प्रगति के लिए शुभ होता है। यदि यह भाव पीड़ित हो तो संतान को कष्ट संभव है।
पितृ भाव- पंचम स्थान नवम भाव से नवम है इसलिए यह पितृ स्थान भी है, अर्थात पिता संबंधी विषयों के बारे में जानने के लिए नवम भाव के अतिरिक्त पंचम भाव की सहायता भी लेनी चाहिए।
पितृदोष- इस भाव पर क्रूर व पाप ग्रहों का प्रभाव पितृ दोष का सूचक है जिसका अर्थ है कि व्यक्ति से किसी न किसी प्रकार के पाप कर्म पूर्वजन्म में अवश्य हुए थे जिसके कारण उसे पितृ प्रकोप का भागी बनना पड़ा है।
शास्त्रीय ज्ञान- यह भाव धर्म त्रिकोण के अंतर्गत आता है इसलिए यह व्यक्ति की शास्त्रों के पवित्र ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता को भी बताता है। क्योंकि यह धर्म स्थान अर्थात नवम भाव से नवम भी है।
अध्ययन में अभिरुचि- यह भाव मूलतः ज्ञान का स्थान है, अतः किसी भी प्रकार के ज्ञान को अर्जित करने इस स्थान से संबंधित है। परंतु यह कहना ज्यादा उचित होगा कि मनुष्य की रूचि जिस प्रकार के शास्त्र अध्ययन में होगी यह भाव उसमें सहायता करेगा।
मातृ अरिष्ट- यह भाव चतुर्थ भाव से द्वितीय स्थान(मारक भाव) स्थान है, इसलिए यह माता को अरिष्ट प्रदान करता है| इस भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में माता को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती है।
मंत्र सिद्धि- यह भाव मनुष्य की तंत्र मंत्र में रूचि को भी दर्शाता है| व्यक्ति को मंत्रों की सिद्धि होगी भी या नहीं और वह उसके लिए कितनी फलदायी रहेगी आदि बातों का पता भी इसी भाव से चलता है।

तीर्थ यात्राएं- यह भाव नवम स्थान से नवम है इसलिए इसका नवम भाव(धर्म स्थान) से घनिष्ठ संबंध है। नवम भाव हमारी तीर्थ यात्राओं से भी संबंधित है, इसी कारण पंचम भाव से भी तीर्थ यात्राओं का विचार किया जाता है। व्यक्ति कब और किस प्रयोजन से तीर्थ यात्रा करेगा आदि बातों का पता नवम भाव के अतिरिक्त इस भाव से भी चलता है।
इष्टदेव- पंचम भाव का संबंध हमारे इष्टदेव से भी होता है। मनुष्य को किस देवी अथवा देवता की पूजा करनी चाहिए और वह उसके लिए कितनी फलदायी रहेगी आदि बातों की जानकारी भी इस भाव से पता चलती है।
प्रेम विवाह- पचम स्थान प्रियतम अथवा प्रियतमा का है। जब इस भाव का संबंध सप्तम भाव व सप्तमेश से हो जाता है तो व्यक्ति परंपरागत विवाह न करके प्रेम विवाह करने के लिए प्रेरित होता है।
मनोरंजन व सट्टा-लॉटरी- पंचम भाव मनोरंजन का भी है। मनोरंजन के विभिन्न साधन जैसे सिनेमा, क्लब, जुआघर, सट्टे-लॉटरी आदि का विचार इसी भाव से करते हैं, यदि बुध और शुक्र चतुर्थेश व पंचमेश होकर एक-दूसरे से संबंध बनाए तो व्यक्ति की रूचि एक्टिंग, सिनेमा, क्लब, सट्टे व लॉटरी आदि में होती है।

Monday 14 January 2019

चतुर्थ भाव का महत्व और विशेषताएँ


कुंडली मे चतुर्थ भाव सुख स्थान या मातृ स्थान के नाम से जाना जाता है।
इस भाव में व्यक्ति को प्राप्त हो सकने वाले समस्त सुख विद्यमान है इसलिए इसे सुख स्थान कहते हैं।
मनुष्य का प्रथम सुख माता के आँचल में होता है केवल वही है जो व्यक्ति की तब तक रक्षा करती है, जब तक वह अपने सुख को अर्जित करने में सक्षम न हो जाए चतुर्थ भाव व्यक्ति की माता से संबंधित समस्त विषयों की जानकारी भी देता है इसलिए इसे मातृ भाव भी कहा जाता है।



तृतीय भाव से दूसरा भाव होने के कारण यह भाई-बहनों के धन को भी सूचित करता है। ज्योतिष में यह विष्णु स्थान है तथा एक शुभ भाव माना जाता है, परंतु यदि शुभ ग्रह इस भाव का स्वामी हो तो उसे केन्द्राधिपत्य दोष भी लगता है, पर कुंडली मे अगर अन्य ग्रहों की स्थिति मज़बूत हो तो दोष कमज़ोर हो जाता है।
यह केंद्र भावों में से एक भाव माना गया है मानव जीवन में इस भाव का बहुत अधिक महत्व है किसी भी मनुष्य के पास भौतिक साधन कितनी भी अधिक मात्रा में क्यों न हों यदि उसके जीवन में सुख-शांति ही नही तो क्या लाभ? इसलिए इस भाव से मनुष्य को प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों का विचार किया जाता है।
जन्मकुंडली में यह भाव उत्तर दिशा तथा अर्द्धरात्रि को प्रदर्शित करता है इस भाव से सुख के अतिरिक्त माता, वाहन, शिक्षा, वक्षस्थल, पारिवारिक सुख, भूमि, कृषि, भवन, चल-अचल संपति, मातृ भूमि, भूमिगत वस्तुएं, मानसिक शांति आदि का विचार किया जाता है।
चतुर्थ भाव मुख्य केंद्र स्थान है "द्वितीय केंद्र" के नाम से प्रसिद्ध यह कालपुरुष के वक्षस्थल का कारक है, यही कारण है, कि इस जीवन में पर्याप्त सुख व आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का हृदय निर्मल होना चाहिए
चतुर्थ भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-।
सुख- चतुर्थ भाव से हम किसी भी व्यक्ति के जीवन के समस्त सुखों का विश्लेषण करते हैं यह भाव मातृ स्नेह एवं उनसे प्राप्त संरक्षण, पारिवारिक सदस्यों, निवास, वाहन आदि से प्राप्त होने वाले सुखों को दर्शाता है।
माता- यह भाव व्यक्ति की माता, उनका स्वभाव, चरित्र तथा विशेषताओं को सूचित करता है मनुष्य की माता को जो सुख-सुविधाएं प्राप्त होंगी वे सब इस भाव से तथा मातृ कारक चन्द्र के आधार पर देखी जाती हैं।
निवास(घर)- यह भाव मनुष्य के निवास स्थान अथवा घर का भी प्रतीक है किसी भी व्यक्ति के सुखमय जीवन के लिए उसके पास निवास स्थान होना अनिवार्य है व्यक्ति केवल गृह में ही विश्राम कर सकता है, अन्य किसी स्थान पर नहीं मनुष्य का निजी घर उसका अतिरिक्त सुख ही है।
संपति- यह भाव चल व अचल दोनों प्रकार की संपति को दर्शाता है शुक्र चल संपति जैसे मोटर, वाहन का कारक है तथा मंगल अचल संपति का कारक होता है।
कृषि- यह भाव भूमिगत वस्तुओं का प्रतीक है इसलिए यह स्थान कृषि से भी जुड़ा हुआ है।
चतुर्थ भाव का दशम भाव व मंगल से संबंध होना कृषि अथवा कृषि-उत्पादों से संबंधित व्यवसाय का सूचक है,
जीवनसाथी का कर्मस्थान- यह भाव सप्तम स्थान(जीवनसाथी) से दशम है इसलिए यह जीवनसाथी के कार्यक्षेत्र व उसकी आय को बताता है।
शिक्षा- यह भाव व्यक्ति की शिक्षा संबंधी संभावनाओं को दर्शाता है मनुष्य कितनी शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम है, और वह किस प्रकार की शिक्षा ग्रहण करेगा यह इस भाव से ज्ञात हो सकता है।
संतान अरिष्ट- यह भाव पंचम स्थान से द्वादश है अतः यह संतान के अरिष्ट का सूचक माना जाता है इस भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में किसी भी व्यक्ति की संतान को शारीरिक कष्ट हो सकता है।
मानसिक शांति- यह भाव व्यक्ति की मानसिक शांति का प्रतीक भी है चतुर्थ स्थान व चतुर्थेश के पीड़ित होने से व्यक्ति मानसिक शांति से वंचित हो सकता है इसलिए इस भाव से यह भी पता चलता है कि मनुष्य को मानसिक शांति प्राप्त होगी या नहीं इस भाव के पीड़ित होने से व्यक्ति को मनोरोग हो सकते हैं।
वक्षस्थल- यह भाव कालपुरुष के वक्षस्थल का सूचक है इस भाव तथा इसके स्वामी के पीड़ित होने से व्यक्ति को छाती या वक्षस्थल से संबंधित रोग अथवा कष्ट हो सकता है।
वाहन- इस भाव से वाहन संबंधी सूचना भी प्राप्त होती है, किसी व्यक्ति के पास वाहन होगा या नहीं, वाहन की संख्या व उनसे मिलने वाले लाभ की जानकारी भी इस भाव से पता चल सकती है, यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा वाहन कारक शुक्र कुडंली में बली हों तो मनुष्य को उत्तम वाहन सुख प्राप्त होता है इसके विपरीत इन घटकों के पीड़ित होने से व्यक्ति वाहन सुख से वंचित हो जाता है।
स्थान परिवर्तन- यह भाव व्यक्ति के निवास से जुड़ा है अतः यदि चतुर्थ स्थान, चतुर्थेश पर शनि, सूर्य, राहु तथा द्वादशेश का प्रभाव हो तो इस पृथकता जनक प्रभाव के कारण मनुष्य को अपना घर-बार, जन्मस्थान तक छोड़ना पड़ता है।
जन-सेवा- चतुर्थ स्थान जनता से संबंधित भाव है इसलिए यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश एवं चन्द्र के साथ लग्नेश का युति अथवा दृष्टि द्वारा संबंध हो तो मनुष्य जनसेवा व जनहितकारी कार्यों को कर सकता है।